बिहार की राजनीति में जाति की चल रही बयार के बीच मुसलमान वोटों को लेकर दोनों प्रमुख गठबंधनों में कम ही चिंता देखी जा रही है।


भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को पता है कि इस बार वे लोकसभा की तुलना में कम ही वोट पाएँगे, तो दूसरी ओर महागठबंधन पूरी तरह आश्वस्त है कि मुसलमान वोट कहीं नहीं जाएगा।इसकी संभावना भी ज़्यादा दिखती है। क्योंकि चुनाव प्रचार के क्रम में जिस तरह गोमांस, सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण का मुद्दा उठाया गया और पाकिस्तान में पटाख़े फूटने जैसे बयान दिए गए, उससे यही लगता है कि बीजेपी को मुसलमान वोटों की फ़िक्र ही नहीं।चुनाव प्रचार के आख़िरी दौर तक आते-आते भाजपा ने हिंदू-मुसलमान वोटों के ध्रुवीकरण की पूरी कोशिश भी की है।इन सबके बीच कहीं मुसलमान एक बार फिर इस्तेमाल तो नहीं हो रहा?


इस सवाल पर लोगों के अलग-अलग दावे हैं कि मुसलमान कितना इस्तेमाल होता है या नहीं। मुसलमान वोट बैंक है या नहीं। लेकिन एक सवाल ये भी है कि क्या चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण पर चल रही बयानबाज़ी के बीच मुसलमानों के मुद्दे पीछे छूट रहे हैं।

जमाते इस्लामी के पटना शहर के अमीर और सलाहकार समिति शूरा के सदस्य रिज़वान अहमद कहते हैं, "हमको ऐसा नहीं लगा कि किसी ने मुसलमानों की समस्या को गंभीरता से उठाया है। यहाँ तक कि जो अपने को मुसलमानों के नेता कहते हैं, वे भी ऐसा नहीं कर रहे हैं।"लेकिन इस बार के चुनाव की ख़ासियत ये भी है कि मुस्लिम वोटों के लिए कोई अपील नहीं जारी हुई है। किसी पार्टी ने भी अपील नहीं की। वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद इस बात से ज़्यादा इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते कि मुसलमान एक वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होता है।वे कहते हैं, "इस बार के चुनाव में एक बात सामने आ रही है कि मुसलमान मुख्यधारा में आकर आम लोगों की तरह वोट कर रहा है। ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने अपील की और न ही किसी पार्टी ने इसके लिए कहा।"वे बीफ़ मुद्दे, अमित शाह के पाकिस्तान वाले बयान और डीएनए वाली टिप्पणी पर अपना नाराज़गी व्यक्त करते हैं।हाल ही में भाजपा में शामिल हुए साबिर अली मानते हैं कि बीजेपी को इन बयानबाज़ियों से नुक़सान हुआ है।साबिर अली कहते हैं, "ये सही है कि बयानबाज़ी से एक समाज आहत हुआ है। लेकिन विपक्षी पार्टियाँ इसे तूल दे देती हैं।"

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब सत्ता संभाली थी, तो सबका साथ सबका विकास का नारा दिया गया था। एक हाथ में क़ुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर की बात कही गई थी। फिर एकाएक क्या हो गया कि मुसलमानों का भरोसा उन्होंने गँवा दिया।सैयद मोहम्मद सनाउल्लाह कहते हैं, "मोदी सरकार को मुसलमानों ने भी वोट दिया था। क़ुरान और कंप्यूटर वाला नारा बहुत अच्छा है। लेकिन वे मुसलमानों के प्रति श्रद्धा नहीं रखेंगे, तो कोई मुसलमान साथ नहीं देगा।"बीच में बड़े ज़ोर-शोर से बिहार में अपने को लांच करने आए असदुद्दीन ओवैसी सीमांचल के कुछ हिस्सों में स्थानीय नेताओं के प्रभाव को छोड़कर कम ही नज़र आते हैं।क्या ओवैसी ने बिहार की राजनीति को ग़लत भाँप लिया था।जमाते इस्लामी के रिज़वान अहमद कहते हैं, "ओवैसी साहब बिहार के लिए अजनबी हैं। हम तो उनक काम से वाकिफ नहीं हैं। सिर्फ़ राजनीतिक फायदा उठाने के लिए अगर कोई आता है, तो ये बात दुरुस्त नहीं।"इतना तो तय है कि बिहार चुनाव में मुसलमानों का रुझान महागठबंधन की ओर साफ़ दिखता है और नीतीश कुमार मुसलमानों के बड़े नेता के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं।

Posted By: Satyendra Kumar Singh