Movie Review : इन 5 खूबियों ने उलझी हुई सच्ची घटना को प्रस्तुत किया सुलझे ढंग से
सच्ची घटना पर है आधारित
लेखक-निर्देशक ने बहुचर्चित हत्याकांड को संवेदनशील तरीके से पेश किया है। यह हत्याकांड मीडिया, चांच प्रक्रिया और न्याय प्रणाली की खामियों से ऐसा उलझ चुका है कि एक कोण सही लगता है, लेकिन जैसे ही दूसरा कोण सामने आता है वह भी सही लगने लगता है। फिल्म सच्ची घटनाओं का हूबहू चित्रण नहीं है। घटनाएं सच्ची हैं, लेकिन लेखक और निर्देशक ने उसे अपने ढंग से गढ़ा है। उन्होंने पूरी कोशिश की है कि वे मल घटनाओं के आसपास रहें। बस, हर बार परिप्रेक्ष्य बदल जाता है।
Movie : Talvar
Director : Meghna Gulzar
Cast : Irfan Khan,Konkona Sen,Neeraj Kabi
नहीं जोड़ी गई फिल्मी नाटकीयता
मूल घटनाओं से जुड़ा रहस्य फिल्म में जैसे का तैसा बना रहता है। निर्देशक ने उन्हें मूल परिवेश के करीब रखा है। परिवेश, भाषा और मनोदशा में फिल्मी नाटकीयता नहीं जोड़ी गई है। किरदारों को भी नैचुरल लुक और फील दिया गया है। विशाल भारद्वाज की कहानियां इंसान के अंतह के द्वंद्व पर केंद्रित होती हैं। अगर इसी फिल्म को विशाल निर्देशित करते तो अवसाद का रंग थोड़ा और गहरा होता। उनके कथा निर्वाह और फिल्म निरूपण में उदासी रहती है।
ऐसे बदला है करेक्टर्स को
मेघना के फिल्मांकन और चरित्रों के निर्वाह में संवेदनात्मक तरलता है। फिल्म में आरुषि का नाम बदल कर श्रुति कर दिया गया है। तलवार परिवार टंडन परिवार हो गया है। फिल्म का शीर्षक तलवार है, जिसे बाद में न्याय की मूर्ति के एक हाथ की तलवार से जोड़ दिया गया था। फिर भी स्पष्ट था कि फिल्म आरुषि तलवार की हत्या पर आधारित है।
घटना के निष्कर्ष में दिखाई चालाकी
हालांकि मेघना गुलजार ने न तो स्वीकार किया और न ही इंकार किया। यह एक किस्म की मार्केटिंग चालाकी हो सकती है। बहरहाल, उस हत्याकांड की जिज्ञासा फिल्म के प्रति आकर्षित करती है। दर्शक फिल्म देखते समय अपनी धारणाओं और नतीजों को मजबूत होते या टूटते देख सकते हैं। लेखक और निर्देशक ने कलात्मक होशियारी बरती है। इस फिल्म में गुलजार की इजाजत के गीत और प्रसंग का उल्लेख विशाल की श्रद्धांजलि हो सकती है, लेकिन फिल्म की प्रवाह में वह रुकावट है। इसी प्रकार धर्म प्रचारक अवस्था जुमले को अधिक खींचा गया है।
बोलता है इरफान का जादू
तलवार की सबसे बड़ी विशेषता कलाकारों का चयन है। श्रुति के माता-पिता नुपूर और रमेश के रूप में कोंकणा सेन और नीरज काबी जंचते हैं। उन्होंने श्रुति के माता-पिता की भूमिकाओं को संजीदगी के साथ निभाया है। दोनों नेचुरल हैं। एक दृश्य में उनका बोला संवाद खटकता है - चलो जल्दी करो, अब रोना-धोना भी है। वह उस दृश्य की जरूरत हो सकती है, लेकिन फौरी अंदाज में बोला गया वह संवाद फिल्म के प्रभाव को अचानक कम कर देता है। नौकरों और ड्राइवर के लिए चुने गए कलाकारों के साथ इंस्पेक्टर बने गजराज राव फिल्म को वास्तविक और विश्वसनीय बनाए रखने में सहायक हैं। लेखक के संवादों में वे अपनी खासियत और अदायगी जोड़ कर उन्हें अधिक चुटीला और प्रभावशाली बना देते हें। इस फिल्म में ऐसे कई प्रसंग हैं, जिनमें इरफान का जादू बोलता है।
Review by: Ajay Brahmatmaj
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