Movie review: ये 'कागज के फूल्स' दर्शकों को नहीं दे सके मनोरंजन की असल खुशबू
कुछ ऐसी है फिल्म की कहानी
अब इसे विडंबना ही कहें या कुछ और कि उस समय के क्लासिक के टैग को 2015 में बदल कर रख दिया गया. इसका परिणाम सामने आया 1959 की गुरुदत्त की फिल्म के बजाए कागज के फूल्स के रूप में. फिल्म में पुरुषोत्तम (विनय पाठक) एक बेहद इमानदार लेखक हैं, लेकिन उनकी लिखीं रचनाएं कभी प्रकाशित नहीं होतीं, क्योंकि प्रकाशकों को कहानियों व लेखनियों में मसाला चाहिए. इनकी पत्नी (मुग्धा गोडसे) उनको चैन नहीं लेने देतीं, जब तक कि वो खुद महत्वाकांक्षी नहीं हो जाते. दरअसल उनकी पत्नी को लगता है कि पुरुषोत्तम ज्यादा कोशिश नहीं करते, आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति नहीं रखते वगैरह-वगैरह. पुरुषोत्तम एक एड एजेंसी में काम करते हैं, लेकिन किन्हीं कारणों से उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है और आखिरकार एक ही मकसद रहता है खुद को, पत्नी और घरवालों की नजर में साबित करना. इन सब मशक्कत के बीच जूझते हुए, बीवी के तानों का सहते हुए पुरुषोत्तम नशे और जुएं का लती होने लगता है. ऐसी स्थिति में पहुंचकर वह एक कॉल गर्ल (राइमा सेन) के चक्कर में पड़ जाते हैं. बस इसी ट्रैक पर बढ़ती रहती है कहानी इस फिल्म की भी.
Kaagaz ke Fools
U/A; Comedy
Director : Anil Kumar Chaudhary
Starring : Vinay Pathak, Mugdha Godse, Raima Sen
किरदारों पर एक नजर
विनय पाठक हाल ही में फिल्म बदलापुर में एक बेहद संजीदा किरदार में नजर आए थे. वहीं उसके तुरंत बाद एक कॉमेडी के किरदार में जमना उनके लिए जरा मुश्किल दिखाई दिया. वहीं बतौर एक्टर सौरभ शुक्ला का इस्तेमाल कर पाने में भी डायरेक्टर पूरी तरह से असफल रहे हैं. गोडसे की एक्टिंग भी दर्शकों को बहुत ज्यादा लुभा नहीं सकी. इन सबके बाद जहां तक राइमा का सवाल है, वह पूरी फिल्म में जैसे नींद में ही चलती दिखाई दे रही हैं. पूरी फिल्म के निष्कर्ष की बात करें तो यह फिल्म सिर्फ फूल और फ़ूल्स के बीच के अंतर के अलावा और कुछ समझाती नजर नहीं आती है.
Review by: SHUBHA SHETTY SAHA
shubha.shetty@mid-day.com