Movie review: छोटे बजट की एक कसी हुई फ़िल्म है 'ट्रैप्ड'
कहानी
फिल्म ट्रैप्ड की कहानी मुझे ये सिखाती है कि, हर तरह की मुसीबत के लिए तैयार रहो। कुछ नहीं तो कम से कम एक पावर बैंक लेकर चलो और कुछ भी हो जाए कितना भी गुस्सा आये मोबाइल फोन मत तोड़ो। क्योंकि मुसीबत कभी भी आ सकती है और हर मुसीबत के लिये एक नंबर डायल करना पड़ सकता है चाहे वो फायर ब्रिगेड का ही या फिर आल नाईट की मेकर का हो जिसके लिए आपको जस्टडायल पे फोन करना पड़ सकता है वरना आप अपनी ही मूर्खता के कारण भूखे मर सकते हैं, अपने हाई राइज अपार्टमेंट में जहां किसी वजह से बिना खाने पानी के चूहे और कॉकरोच तो रह सकते हैं पर आप नहीं।
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फिल्म: ट्रैप्ड
कास्ट: राजकुमार रॉव, गीतांजली थापा
निर्देशक: विक्रमादित्य मोटवानी
लेखन निर्देशन
विक्रमादित्य मोटवानी मेरे फेवरेट फिल्मकार हैं। वो बेहद टैलेंटेड हैं और उन्हें कहानी सुनाने की कला आती है। ऑन द टेबल प्रॉफिट देने की क़ुव्वत रखने वाली फिल्म ट्रैप्ड निर्माण की दृष्टि से प्रॉफिटेबल फिल्म भले ही हो पर ये वो कहानी नहीं है जो विक्रम के स्टेटस के हिसाब से ठीक हो। ये उस तरह की कहानी है जिसे फिल्म स्कूल से निकलने वाला स्टूडेंट चुनेगा, अपनी पहली कम बजट की फिल्म बनाने के लिए, फेस्टिवल सर्किट में भेजने के लिए। हालांकि विक्रम का निर्देशन टॉप नौच है। वो इस साधारण कहानी में भी जान फूँक देते हैं, और आपको खूब डरा कर रखते हैं। आप फिल्म देखने के बाद एक लिस्ट बनाने की सोचेंगे उन चीज़ों की जिनकी ज़रुरत आपको पड़ सकती है ऐसी सिचुएशन में, मेवे के पैकेट, क्लोरीन की गोलियां, पटाखे, लंबी बैटरी लाइफ वाला एक स्पेयर नोकिया 1100 जैसा कोई बेसिक फोन और एक पावर बैंक जो उसको चार्ज कर सके, इसके बाद भी आप नहीं बच सके तो समझ लीजिये की आपका मरना तय था, ये ऊपरवाले की मर्ज़ी थी।
विक्रम ने कहानी में हर मुसीबत के आने के लिए एक वैलिड कारण देने की कोशिश ज़रूर की है पर इतने सारे कारण हैं कि उन सब के बीच में फंसे शौर्य को देख के आपके मुँह से निकल सकता है, 'इस बेवक़ूफ़ के साथ ऐसा ही होना चाहिए', यही कारण है की जब मुंम्बई शहर में रहने वाला कोई फिल्म को देखेगा तो रिलेट तो करेगा पर फिर भी शौर्य से सहानुभूति शायद ही रखे। फिल्म की राइटिंग टाइट है पर एक पॉइंट पर आके मोनोटोनस लगने लगती है। इसकी अच्छी बात है इसका रन टाइम जो आपको बोर नहीं होने देता।
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अदाकारी
फिल्म राजकुमार का वन मैन शो है, उन्होंने पूरी कोशिश की है कि वो आपको हुक्ड रख सकें। कुछ सीन तो जावर्दस्त हैं पर कहीं कहीं पर वो रेपेटेटिव हो जाते हैं। उनके चेहरे पर डर और मज़लूमियत के अलावा ज़्यादा भाव नहीं आते। उनका काम ज़बरदस्त है पर फिर भी लगता है कि कहीं कुछ कमी है। क्या कमी है ये बता पाना ज़रा मुश्किल है क्योंकि फिल्म की कसी एडिटिंग की वजह से ज़्यादा सोचने का मौका नहीं मिलता।
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फिल्म का बॉक्स ऑफिस प्रेडिक्शन: फिल्म अपने पूरे रन में 10-12 करोड़ तक कमा सकती है जिसका अधिकतर हिस्सा मुम्बई से आएगा। ऐसे कम चांस हैं कि छोटे शहरों में ये फिल्म ज़्यादा कमाई कर पाए।
Review by : Yohaann Bhaargava
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