Movie Review : इन 7 कारणों से 'बाजीराव-मस्तानी' की प्रेमकहानी बन गई दमदार
ऐतिहासिक प्रेमकहानी है बाजीराव मस्तानी
इस राजनीतिक पृष्ठभूमि में रची गई संजय लीला भंसाली की ऐतिहासिक प्रेमकहानी है बाजीराव मस्तानी। बहादुर बाजीराव और उतनी ही बहादुर मस्तानी की यह प्रेम कहानी छोटी सी है। अपराजेय मराठा योद्धा बाजीराव और बुंदेलखंड की बहादुर राजकुमारी मस्तानी के बीच इश्क हो जाता है। बाजीराव अपनी कटार मस्तानी को भेंट करते हैं। बुंदेलखंड की परंपरा में कटार देने का मतलब शादी करना होता है। मस्तानी पुणे के लिए रवाना होती है, ताकि बाजीराव के साथ रह सकें। यहां बाजीराव अपने बचपन की दोस्त काशीबाई के साथ शादी कर चुके हैं। मस्तानी के आगमन पर बाजीराव की मां नाखुश होती है। वह मस्तानी का तिरस्कार करती हैं। बड़ी वजह उसका मुसलमान होना है। थोड़े समय के असमंजस के बाद बाजीराव तय करते हैं वह मस्तानी को अपना लेंगे।
जबरदस्त विजुअल्स का भंडार
रिश्तों के इस दास्तान में ही तब का हिंदुस्तान भी नजर आता है। उस समय की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों पर भी टिप्पाणियां होती हैं। संजय लीला भंसाली की बाजीराव मस्तांनी में कथात्मक तत्व कम हैं। ज्यापदा पेंच और घटनाएं नहीं हैं। इस फिल्म में विपुल दृश्यात्मक सौंदर्य है। ऐसे विजुअल हिंदी फिल्मों में कम दिखाई पड़ते हैं। भंसाली ने सभी दृश्यों को काल्पनिक विस्तात दिया है। वे उन्हें भव्य और विशद रूप में पेश करते हैं। वाड़ा, महल, युद्ध के मैदान के चित्रण में गहन बारीकी दिखाई पड़ती है। संजय और उनके तकनीकी सहयोगी बाजीराव के समय की वास्तु कला, युद्ध कला, वेशभूषा, सामाजिक आचरण और व्यवहार, राजनीतिक और पारिवारिक मर्यादाओं का कहानी में समावेश करते हैं।
चित्रांकन में मिलेगी भव्यता
उनके चित्रांकन के लिए आवश्यक भव्यता से वे नहीं हिचकते। अपनी खास शैली के साथ इस फिल्म में भी भंसाली मौजूद हैं। उस काल को दिखाने में उन्होंने ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ कल्पना का योग किया है। वे एक अप्रतिम संसार रचते हैं, जिसमें गतिविधियों का विस्तार करते हैं। वे उनके फिल्मांकन में ठहरते हें। राजसी कारोबार, पारिवारिक अनुष्ठान और युद्ध के मैदान में भंसाली स्वयं विचरते हैं और दर्शकों को अभिभूत करते हैं।
किरदारों को बखूबी गढ़ा है
भंसाली ने बाजीराव, मस्तानी और काशीबाई के किरदार को गढ़ा है। साथ ही बाजीराव की मां, चीमा और नाना जैसे किरदारों से इस छोटी कहानी में नाटकीयता बढ़ाई है। देखें तो सभी राज और पेशवा परिवारों में वर्चस्व के लिए एक तरह की साजिशें रची गई हैं। बाजीराव खुद के बारे में कहते हैं...चीते की चाल, बाज की नजर और बाजीराव की तलवार पर संदेह नहीं करते, कभी भी मात दे सकती है। हम फिल्म में स्फूर्तिवान बाजीराव को पूरी चपलता में देखते हैं। मस्तानी की आरंभिक वीरता पुणे आने के बाद पारिवारिक घात का शिकार होती है। उसकी आंखें पथरा जाती हैं। यों लगता है कि उसके सपने उन आंखों में जम गए हैं। किसी बाघिन को पिंजड़े में डाल दिया गया हो। बाजीराव से बेइंतहा मोहब्बत करने के साथ वह मर्यादाओं का ख्याल रखने में संकुचित हो जाती है। काशीबाई के साथ स्थितियों ने प्रहसन किया है। फिर भी वह कठोर दिल होकर भी नारी के सम्मान और पति के अभिमान में कसर नहीं आने देती। संजय लीला भंसाली ने तीनों किरदारों को पर्याप्ती गरिमा और परिप्रेक्ष्य दिया है। इनमें कोई भी भावनात्मक छल में नहीं शामिल है।
प्रियंका और दीपिका दोनों का किरदार दमदार
बाजीराव मस्तानी के मुख्य कलाकार प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह ने अपने किरदारों को आवश्यक गहराई और गंभीरता दी है। रणवीर तो अपने नाम के अनुरूप ही कुशल योद्धा दिखते हैं। युद्ध के मैदान में उनकी स्फूपर्ति घुड़सवारी, तलवारबाजी और आक्रामकता में स्पष्ट नजर आती है। सेनापति के रूप में वे योद्धाओं को ललकारने में सक्षम हैं। रणवीर सिंह ने युद्ध के मैदान से लेकर भावनात्मनक उथल-पुथल के घमासान तक में बाजीराव के गर्व और द्वंद्व को अपेक्षित भाव दिए हैं। दीपिका पादुकोण इस दौर की सक्षम अभिनेत्री के तौर पर निखरती जा रही हैं। उन्होंने योद्धा के कौशल और माशूका की कसक को खूबसूरती के साथ पेश किया है। बच्चे को कंधे पर लेकर युद्ध करती मस्ताथनी किसी बाघिन की तरह लगती है। प्रियंका चोपड़ा के किरदार में काशीबाई के लिए अधिक स्पेस नहीं था। अपनी सीमित उपस्थिति में ही प्रियंका चोपड़ा पभावित करती हैं। इस किरदार को लेखक-निर्देशक का सपोर्ट भी मिला है। वास्तव में काशीबाई का किरदार ही बाजीराव और मस्तानी की प्रेमकहानी का पेंच है।
ऐतिहासिक प्रसंग की गंभीरता
संजय लीला भंसाली ने 21 वीं सदी की दूसरी ऐतिहासिक फिल्म प्रस्तुत की है। इसके पहले हम आशुतोष गोवारिकर की जोधा अकबर देख चुके हैं। आशुतोष की तरह भंसाली ने भी अपने समय के सामाजिक, वैचारिक और धार्मिक मुद्दों को स्पर्श किया है।बाजीराव और मस्तानी के प्रेम की बड़ी अड़चन दोनों के अलग धर्म का होना है। संवादों और प्रसंगों के माध्यम से भंसाली ने बाजीराव के माध्यम से अपना पक्ष रखा है। खासकर मराठा राजनीति में इस ऐतिहासिक प्रसंग पर ध्यान देना चाहिए। बाजीराव मस्तानी के प्रोडक्शन पर अलग से लिखा जा सकता है। संजय लीला भंसाली की टीम ने उस दौर को राजसी भव्यता और विशालता दी है। उन्होंने संगीत, सेट, पार्श्व संगीत, दृश्य संयोजन, युद्ध की कोरियोग्राफी में अपनी कुशलता जाहिर की है। फिल्म के वे हिस्से मनोरम और उल्लेखनीय है, जब पार्श्वव संगीत पर गतिविधियां चल रही हैं। बिंगल, दुदुंभि, ढोल और नगाड़ों की ध्वनि जोश का संचार करती है। बगैर कहे ही सब उद्घाटित होता है।
गोधूलि बेला का सबसे ज्यादा इस्तेमाल
फिल्म के क्लाइमेक्स से थोड़ी निराशा होती है। संभ्रम की स्थिति में आए बाजीराव के ये दृश्य लंबे हो गए हैं। हां, एक और बात उल्लेखनीय है कि फिल्म के अधिकांश कार्य व्यापार सूर्यास्त और सूर्योदय के बीच ही होते हें। गोधूलि बेला का फिल्म में अत्यधिक इस्तेमाल हुआ है।
Review by Ajay Brahmatmaj