उत्तर प्रदेश के हापुड़ में एक सरकारी बैंक में क्लर्क रमेश शर्मा सुबह से परेशान हैं कि फ़ोन बिल भरने की आज आख़िरी तारीख़ थी और उनके दिमाग़ से यह बात फ़िसल गई. शाम का वक्‍़त है ऐसे में‌ बिल काउंटर्स भी बंद हो चुके होंगे.


शर्माजी के घर में कंप्यूटर या लैपटॉप भी नहीं है, जो वेबसाइट पर लॉग-इन करके तुरंत बिल जमा करा दें. मगर सातवीं क्लास में पढ़ने वाला उनका बेटा सक्षम उनकी दिक्क़त समझ नहीं पा रहा.जब पता चला, तो उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान आ गई.सक्षम ने पिछले महीने छह हज़ार रुपए में खरीदा अपना एंड्रॉयड स्मार्टफ़ोन जेब से निकाला. टच-पैड स्क्रीन पर कुछ मिनट उंगलियां दौड़ाईं, पापा का कार्ड मांगा और बिल जमा हो गया.शर्मा जी बेटे का चेहरा देखते रह गए. उन्हें यक़ीन ही नहीं हुआ कि फ़ोन पर बिल जमा करना बच्चों का खेल बन चुका है, जिसके लिए कभी वो घंटों लाइन में खड़े हुआ करते थे.कल शाम की ही बात थी, जब सक्षम ने इसी फ़ोन से अपने इलाक़े के सारे डॉक्टरों और अस्पतालों की फेहरिस्त दो मिनट में निकाल दी थी.स्मार्टफ़ोन, जादू की छड़ी!


सक्षम इसे ‘जादू की छड़ी’ कहता है और उसके पिता को इस पर यक़ीन हो चला है. यह स्मार्ट लोगों का ऐसा दौर है, जिसमें स्मार्टफ़ोन के बिना ज़िंदगी की कल्पना मज़ाक सी लगती है.मगर फ़ोन हमेशा से ऐसा नहीं था. वह सिर्फ़ दो लोगों की बात कराता था. अब दुनिया चलाने लगा है.

बीस बरस पहले एक जुमला खूब मशहूर हुआ. ज़िंदगी की तीन जरूरतें - रोटी, कपड़ा और मकान. मगर स्मार्टफ़ोन ने ज़िंदगी के साथ उसे चलाने वाले मंत्र भी बदल डाले.अब दुनिया रोटी, कपड़ा, मकान और मोबाइल की बात करती है. स्मार्टफ़ोन ऐप्स इसमें जुड़ने वाली पांचवीं ज़रूरत बन गई है.फ़ोन कॉल और मैसेज के लिए जेब से निकाले जाने वाला मोबाइल फ़ोन अब दिन के ज्यादातर घंटे और रात में कई बार हाथों में रहता है, तो इसकी वजह स्मार्ट ऐप्स हैं.

Posted By: Prabha Punj Mishra