ध्यान का अर्थ है: भीतर की आत्मिक उलझन को सुलझाना और ज्ञान का अर्थ है: तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर समझ लो।

प्रश्न: आपसे प्रश्नों का समाधान तो मिलता है, पर समाधानों से समाधि घटित क्यों नहीं हो पा रही है? समाधानों में मुझे क्या जोड़ना आवश्यक है?

समाधानों से समाधि कभी घटित नहीं होती। उस भूल में मत पड़ जाना तुम्हारे प्रश्नों का समाधान भी हो जाए अगर, तो भी समाधि घटित न होगी, क्योंकि तुम तो भीतर वैसे के वैसे रहोगे। प्रश्न हल हो गए, तुम थोड़े ही हल हो गए! जब तुम हल हो जाते हो, तब समाधि घटित होती है। प्रश्न का उत्तर तो समाधान लाता है; तुम्हारा उत्तर, तुम्हारे पूरे जीवन को उत्तर मिल जाता है जिस क्षण, उस क्षण समाधि घटित होती है।

तो प्रश्नों के उत्तर तो मैं दे सकता हूं, क्योंकि प्रश्न तुम पूछ सकते हो; लेकिन तुम्हारा उत्तर तो तुम्हें खोजना पड़ेगा। तो अगर मेरे प्रश्न और उनके समाधान इतना ही कर सकें कि तुम्हें सजग कर दें और तुम्हें उस यात्रा पर गतिमान कर दें, जहां समाधि उपलब्ध होती है, तो बस काफी है। ये तो मील के पत्थर हैं, इनको पकड़कर मत बैठ जाना; ये मंजिल नहीं हैं। मील के पत्थर पर तीर बना रहता है-और आगे जाना है, और आगे जाना है! जो भी मैं तुमसे कह रहा हूं, हर उत्तर पर तीर लगा है-और आगे जाना है, और आगे जाना है!

-जब तक तुम न हल हो जाओ! तुम एक उलझन हो। तुम्हारे प्रश्न तो तुम्हारी उलझन से पैदा हो रहे हैं। प्रश्नों के कारण थोड़े ही तुम उलझे हुए हो; तुम्हारी उलझन के कारण प्रश्न पैदा हो रहे हैं। प्रश्न तो केवल ऊपर के सिंपटम्स हैं। जैसे किसी आदमी को बुखार चढ़ा, शरीर गरम है--अब शरीर गरम होना थोड़ी बीमारी है! वह तो केवल लक्षण है। तुम बर्फ लेकर ठंडा मत करने लगना उसके शरीर को। ठंडा कर भी दो तो हो सकता है कि मरीज बिल्कुल ठंडा ही हो जाए। यह शरीर का गरम होना बीमारी नहीं है; शरीर के भीतर कोई बहुत उपद्रव मचा है, कोई गृह-युद्ध चल रहा है, उसकी वजह से सारा शरीर उत्तप्त हो गया है। उस गृह-युद्ध को मिटाना है। उसके लिए औषधि खोजनी होगी।

तुम्हारे प्रश्न तुम्हारे भीतर की आंतरिक उलझन से पैदा होते हैं। मैं एक प्रश्न हल कर दूंगा; तुम्हारी आंतरिक उलझन हजार नए प्रश्न खड़े करती जाएगी। यह बीमारी सदा चल सकती है। इसका कोई अंत नहीं है। मनुष्य ने करोड़ों प्रश्न पूछे हैं, करोड़ों उत्तर दिए गए हैं। ऐसा कोई प्रश्न नहीं है, जिसका उत्तर न दिया गया हो; लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? उत्तर किताबों में बंद रहते हैं, आदमी अपनी मुसीबत में। उत्तर से कोई उत्तर नहीं मिलता। उत्तर से तुम्हें इतना ही दिखाई पड़ जाए कि तुम्हारे भीतर तुम्हारी आत्मा ही रुग्ण है और वहां कुछ करना जरूरी है इसलिए तो मेरा सारा जोर ज्ञान पर नहीं है, सारा जोर ध्यान पर है।

ध्यान का अर्थ है: भीतर की आत्मिक उलझन को सुलझाना और ज्ञान का अर्थ है: तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर समझ लो। तुम पूछोगे आज, मैं तुम्हें समझाऊंगा, समझ में भी आ जाएगा: तुम यहां से जा भी न पाओगे, रास्ते पर भी न पहुंच पाओगे कि हजार प्रश्न खड़े हो जाएंगे और अगर तुम बहुत कुशल हो, ज्यादा बीमार हो, क्रॉनिक हो तो यहीं बैठे-बैठे जब मैं तुम्हें उत्तर दे रहा हूं, तभी तुम्हें पच्चीस प्रश्न खड़े होते रहेंगे। उत्तर से कोई प्रश्न हल नहीं होने वाला। तुममें प्रश्न ऐसे ही लगते हैं जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं। अब पत्तों को काट दो, इससे क्या होता है? एक पत्ता काटो तो तीन पत्ते लगते हैं। वृक्ष समझता है, तुम कलम कर रहे हो। जड़ तो तब कटेगी, जब तुम ध्यान से जुड़ोगे।

ज्ञान से जुड़ने से थोड़ी-बहुत राहत मिल सकती है। इसलिए कबीर ने कहा है कि ज्ञान गुड़, ध्यान महुआ और जीवन के अनुभव की भट्टी में बनती है शराब; और वह शराब ही समाधि है। जीवन की भट्टी में, जीवन के अनुभव से! इसलिए कच्चे जो भागना चाहते हैं; जो जीवन के अनुभव से बचना चाहते हैं; जो कहते हैं, हमें बचाओ- उनको नहीं बचाया जा सकता। तुम्हें अनुभव से तो गुजरना ही पड़ेगा। सस्ते समाधि नहीं मिलती। उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। तुम्हें जीवन के अनेक-अनेक रास्तों पर भटकना ही पड़ेगा। बहुत द्वार खटखटाने पड़ेंगे। बड़ी व्यर्थता को जीना पड़ेगा। दु:ख और विषाद को झेलना पड़ेगा। वही तो जीवन की भट्टी है।

ओशो

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Posted By: Kartikeya Tiwari