सत्य कहा नहीं जा सकता है, फिर भी संत क्यों बोलते हैं? ओशो से जानें
इसीलिए, कि उसकी खबर तुम तक पहुंचा दें, जो कहा नहीं जा सकता है। इसीलिए कि जो कहा जा सकता है, उसी को जीवन मानकर समाप्त मत हो जाना। अनकहा भी है; न कहा जा सके, वह भी है-और वही सार है। क्षुद्र कहा जा सकता है; विराट कैसे कहा जाए! शब्द इतने छोटे हैं; शब्दों की छोटी-सी सीमा में कैसे असीम समाए! इशारा किया जा सकता है--अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। संत इसीलिए बोलते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि तुम शब्दों ही शब्दों में समाप्त हो जाओ। शब्द बहुत क्षुद्र हैं। भाषा की बहुत गति नहीं है; असली गति मौन की है। शब्द तो यहीं पड़े रह जाएंगे; कंठ से उठे हैं और कान तक पहुंचते हैं। मौन दूर तक जाता है; अनंत तक जाता है। नहीं तो तुम्हें यह भी कैसे पता चलता कि सत्य नहीं कहा जा सकता है! कहने से इतना तो पता चला। कहने से इतनी तो याद आई कि कुछ और भी है। भाषा के बाहर, शास्त्र के पार कुछ और भी है। कुछ सौंदर्य ऐसा भी है, जो कभी कोई चित्रकार रंगों में उतार नहीं पाया है। और कुछ अनुभव ऐसा भी है कि गूंगे के गुड़ जैसा है; अनुभव तो हो जाता है, स्वाद तो फैल जाता है प्राणों में, लेकिन उसे कहने के लिए कोई शब्द नहीं मिलते।
जानते हैं संत; निरंतर स्वयं ही कहते है कि सत्य कहा नहीं जा सकता; और बड़ी जोखिम भी लेते हैं। क्योंकि जो नहीं कहा जा सकता, उसको कहने की कोशिश में खतरा है। गलत समझे जाने का खतरा है। कुछ का कुछ समझे जाने का खतरा है। अनर्थ की संभावना है--और अनर्थ हुआ है। लोगों ने शब्द पकड़ लिए हैं। शब्दों के पकड़ने के आधार पर ही तो तुम विभाजन किए बैठे हो। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन है! ये फर्क क्या हैं? ये शब्दों को पकड़ने के फर्क हैं। किसी ने मोहम्मद के शब्द पकड़े हैं, तो मुसलमान हो गया है। और किसी ने महावीर के शब्द पकड़े हैं, तो जैन हो गया है। मोहम्मद के और महावीर के मौन में जरा भी भेद नहीं है। भैद है, तो शब्दों में है।विचार कागज की नाव की तरह है, तो फिर भाव क्या है? ओशो से जानेंजीवन में अत्यधिक दु:ख होने के बाद भी वैराग्य क्यों नहीं होता? जानेंअगर मुसलमान मोहम्मद का मौन देख ले, जैन महावीर का मौन देख ले, फिर कहां विवाद है? मौन में कैसा विवाद? मौन तो सदा एक जैसा होता है। किसी हड्डी-मांस-मज्जा में उतरे, मौन तो सदा एक जैसा होता है। एक कागज पर कुछ लिखा; दूसरे कागज पर कुछ लिखा। लेकिन दो कोरे कागज तो बस, कोरे होते हैं। अगर मुसलमानों ने मोहम्मद के शब्द के पार झांका होता, तो मुसलमान होकर बैठ न जाते। इन सब का प्रभाव पड़ता है शब्दों पर। मगर लोगों ने शब्द पकड़ लिए हैं इसलिए संत खतरा भी मोल लेता है। यह जानकर कि सत्य तो कहा नहीं जा सकता, फिर भी खतरा लेता है। और खतरा बड़ा है--कि लोग शब्द को न पकड़ लें! लोग इतने अंधे हैं, चांद बताओ, अंगुली पकड़ लेते हैं! और सोचते है: अंगुली चांद है! अंगुली की पूजा शुरू हो जाती है।
ओशो।