कन्हैया को कृष्ण न बनाया जाए
जेएनयू की छात्र राजनीति क़रीब से देख चुका हूँ, मुझे ताज्जुब तब हुआ जब मैंने भाषण के तुरंत बाद सोशल मीडिया का नज़ारा देखा।कुछ लोग कह रहे थे ‘हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की’, तो कुछ लोग यहाँ तक कह रहे थे कि आज की तारीख में यह लड़का में चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को कहीं भी हरा देगा।इस तरह की टिप्पणियां जेएनयू के पूर्व छात्रों ने भी की थीं और आम जनता में से भी कई लोगों ने।ऐसी तुलना और ऐसी तारीफ़ मुझे अजीब-सी लगी क्योंकि कन्हैया के भाषण में ऐसी कोई भी नई या ऐतिहासिक बात नहीं थी, जो वाम दल पहले से न कहते रहे हों। चाहे वह भारत में मुसीबतों से आज़ादी की बात हो या फिर संघ का विरोध हो या फिर दलितों को साथ में लेकर चलने की बात हो।
इसके बावजूद जो गंभीर मुद्दा कन्हैया ने अपने भाषण में उठाया है उस पर दिग्गज वामपंथियों ने कहीं कुछ लिखा हो तो मुझे नहीं दिखा है।
मसलन, कन्हैया ने बात की सेल्फ़ क्रिटिसिज़्म की। कन्हैया के ही शब्दों में ''जेएनयू में हम सभी को सेल्फ क्रिटिसिज़्म की ज़रूरत है क्योंकि हम जिस तरह से यहां बात करते हैं वो बात आम जनता को समझ में नहीं आती है। हमें इस पर सोचना चाहिए।''यह एक महत्वपूर्ण बात है लेफ़्ट की राजनीति की, जो पिछले कुछ बरसों में सिमट गई है।लेकिन देखते रहिए। इन मुद्दों पर शायद ही वामपंथी छात्र बात करेंगे। कन्हैया ने अपने जेल के अनुभव गिनाते हुए लाल और नीली कटोरी का उदाहरण दिया और संकेत दिया कि वाम दल और दलित मूवमेंट को साथ चलना होगा।
कन्हैया एक छात्र नेता है। भावुकता, आंदोलन और क्रांति की बातें उसे शोभा देती हैं लेकिन उस पर आकांक्षाओं का बोझ न डाला जाए। उसे अपना उबड़-खाबड़ रास्ता ख़ुद तय करने दिया जाए।भाषण से ही अगर प्रधानमंत्री बनना होता तो कई वामपंथी नेता आज प्रधानमंत्री होते।भाषण देखिए। दो मिनट की गहरी सांस लीजिए, कन्हैया से उम्मीद रखिए, उसके भाषण से नहीं और कम-से-कम अपनी उम्मीदों का बोझ एक 28 साल के छात्र के कंधों पर तो मत ही डालिए।