चुनौती भरा है हीमोफीलिया के साथ जीना
-आज है वर्ल्ड हीमोफीलिया डे
-शहर में हीमोफीलिया के 60 और स्टेट में है 500 रजिस्टर्ड पेशेंट्स -हीमोफीलिया के लिए एमजीएम हॉस्पिटल में गवर्नमेंट की तरफ से आया फंड हुआ रिटर्न, मरीजों को नहीं मिली सहायता abhijit.pandey@inext.co.inJAMSHEDPUR: बचपन में खेलते-कूदते वक्त या बड़े होने पर भी किसी कारणवश कहीं हल्की चोट लग जाने पर ब्लड निकल आना एक आम बात है। कई बार तो हल्की ब्लीडिंग होने पर लोग ध्यान भी नही देते, बस रुई में लेकर थोड़ा सा एंटीसेप्टिक लोशन लगाया और चलते बने। पर क्या सभी के लिए किसी हल्की सी चोट को यूं नजरअंदाज कर पाना मुमकिन हैं। नहीं, अगर ये चोट किसी हीमोफीलिया पीडि़त व्यक्ति को लगे ये उसके लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है। क्7 अप्रैल को वर्ल्ड हीमोफीलिया डे मनाया जाता है। कितना मुश्किल है इस बीमारी के साथ जीना, हमने शहर में हीमोफीलिया पीडि़त कुछ पेशेंट्स से बात कर ये जानने की। साथ ही शहर में हीमोफीलिया पेशेंट्स की सुविधाओं का भी जायजा लिया।
हैं हीमोफीलिया के म्0 मरीजहीमोफीलिया एक ऐसी बीमारी है, जिसमें जरा सा भी चोट लगने पर भी लंबे समय तक ब्लीडिंग होती रहती है। ऐसा हीमोफीलिया पीडि़त व्यक्ति के ब्लड में क्लॉटिंग फैक्टर नहीं होने की वजह से होता है। भ्000 हजार पैदा हुए बच्चों में से किसी एक में यह बीमारी पाई जाती है। हीमोफीलिया फेडरेशन इंडिया के जमशेदपुर चैप्टर के सेक्रेटरी सौमित्र हाजरा ने बताया कि शहर में हीमोफीलिया के म्0 पेशेंट्स हैं। इनमें से ब्0 उनके पास रजिस्टर्ड हैं, जबकि ख्0 की पहचान की गई है। उन्होंने कहा कि देशभर में हीमोफीलिया फेडरेशन के 70 चैप्टर हैं, जिनमें करीब क्भ् हजार पेशेंट्स रजिस्टर्ड हैं। हीमोफीलिया फेडरेशन के रांची चैप्टर के फाउंडर और रिम्स के फिजियोलॉजी डिपार्टमेंट के प्रोफेसर डॉ गोविंद सहाय ने बताया कि पूरे स्टेट में फिलहाल भ्00 से ज्यादा हीमोफीलिया के रजिस्टर्ड पेशेंट्स हैं। हालांकि, उन्होंने स्टेट में हीमोफीलिया के करीब पांच हजार पेशेंट्स होने की बात कही।
महंगा है इलाजहीमोफीलिया के पेशेंट्स में ब्लीडिंग रोकने के लिए उन्हें क्लॉटिंग फैक्टर दिया जाता है। डॉ गोविंद सहाय ने कहा कि किसी तरह का ऑपरेशन होने पर सात से क्0 दिन तक क्लॉटिंग फैक्टर देना पड़ता है। इसका असर क्ख् से क्8 घंटे तक रहता है। उन्होंने कहा कि एक एडल्ट को हर रोज भ्00 से क्000 यूनिट क्लॉटिंग फैक्टर दिया जाता है, लेकिन ये क्लॉटिंग फैक्टर बेहद महंगा होता है। उन्होंने कहा कि ओपन मार्केट में ख्भ्0 यूनिट क्लॉटिंग फैक्टर के लिए क्0 हजार रुपए तक लगते हैं। फेडरेशन की तरफ से कम कीमत पर पेशेंट्स को क्लॉटिंग फैक्टर उपलब्ध कराया जाता है। डॉ गोविंद सहाय ने बताया कि इसके बावजूद यह इतना महंगा है की सभी पेशेंट्स के लिए इसे खरीद पाना मुश्किल है।
तब पता चला हीमोफीलिया फेडरेशन इंडिया के जमशेदपुर चैप्टर के सेक्रेटरी सौमित्र हाजरा खुद इस बीमारी से पीडि़त हैं। वे जब छह महीने के थे, तब पहली बार परिवार को उनकी इस बीमारी के बारे में पता चला था। उन्होंने कहा कि एक बार वे गिर गए थे, पूरा बदन काला-नीला पड़ गया, डॉक्टर्स को कुछ शक हुआ। परिवार के लोग इलाज के लिए कोलकाता लेकर गए तब जांच के बाद हीमोफीलिया फैक्टर 8 का पता चला। उन्होंने कहा कि बचपन में चोट लगने पर हर महीने चार-पांच बार टीएमएच जाना पड़ता था। एक बार सिर फट गया तो ख्भ् से फ्0 बोतल ब्लड चढ़ाना पड़ा। करीब क्भ् दिन पहले उन्हें पैर में थोड़ी चोट लग गई थी। तब से ज्वाइंट्स में इंटरनल ब्लीडिंग की वजह से उनका चलना-फिरना मुश्किल हो गया है। उन्होंने कहा कि इस चोट की वजह से अब तक उन्हें पांच हजार यूनिट क्लॉटिंग फैक्टर लेना पड़ा है। मां को हर वक्त रहती है चिंताहीमोफीलिया के साथ जीना कितना मुश्किल है इसका अंदाजा सौमित्र हाजरा की मां की बातों से लगता है। ब्7 वर्ष के सौमित्र हाजरा की मां मृदुला हाजरा को आज भी हर वक्त उनकी चिंता लगी रहती है। म्भ् वर्षीय मृदुला हाजरा ने बताया कि जब से बेटे में इस बीमारी का पता चला, उन्हें हमेशा चिंता लगी रहती है कि कहीं उसे हल्की चोट भी ना लग जाए। ये चिंता बचपन में खेलते-कूदते वक्त भी रहती थी और आज भी रहती है।
मरीजों को नहीं मिली सहायता गवर्नमेंट द्वारा हीमोफीलिया के जरूरतमंद पेशेंट्स फ्री में क्लॉंिटग फैक्टर अवेलेबल कराने के लिए के लिए एमजीएम हॉस्पिटल को फंड दिया था, लेकिन हैरानी की बात है कि उस फंड का लाभ किसी को नहीं मिला। सौमित्र हाजरा ने बताया कि ख्0क्फ्-क्ब् में गवर्नमेंट ने एक करोड़ रुपए सैंक्शन किए थे। इनमें से 90 लाख रुपए रिम्स को और क्0 लाख रुपए एमजीएम हॉस्पिटल को दिए गए थे, लेकिन ताज्जूब की बात यह है कि एमजीएम हॉस्पिटल से फंड वापस लौट गया। नहीं डायग्नोस्टिक फैसिलिटीएमजीएम मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के प्रिंसिपल डॉ एएन मिश्रा से बात करने पर उन्होंने कहा कि उनके पास फंड आया था पर डायग्नोस्टिक फैसिलिटी ना होने की वजह से फंड वापस लौटाना पड़ा। उन्होंने कहा कि अगर हॉस्पिटल के पास हीमोफीलिया के लिए अपनी डायग्नोस्टिक फैसिलिटी हो तभी मरीजों की पहचान कर उन्हें सहायता उपलब्ध कराई जा सकती है। उन्होंने कहा कि हॉस्पिटल में इस तरह की सुविधा उपलब्ध कराए जाने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ रांची स्थित रिम्स में इस फंड के जरिए मरीजों को क्लॉटिंग फैक्टर उपलब्ध कराया जा रहा है। डॉ गोविंद सहाय ने बताया कि हाल ही में हीमोफीलिया के तीन मरीजों का ऑपरेशन किया गया, जिन्हें हॉस्पिटल की तरफ से क्लॉटिंग फैक्टर उपलब्ध कराया गया।