राजनीतिक फ़िल्मों से क्यों भागता है बॉलीवुड?
राजनेताओं के भाषण, राजनेताओं के नखरे और राजनेताओं के मंसूबे ये सब बनाता है भारत की राजनीति को काफ़ी नाटकीय. पर कमाल की बात तो ये है कि इस नाटक को बड़े परदे पर लाने में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री कतराती है. ज़रा सोचिए अपनी पसंदीदा राजनीतिक फिल्म के बारे में. आई कोई याद?
जब भारत के चर्चित फ़िल्मकार श्याम बेनेगल से मैंने ये सवाल किया तो वो भी सोच में पड़ गए और फिर जवाब नहीं दे पाए. विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाए जाने के बाद भी, भारत में क्यों नहीं है विकसित पॉलिटिकल सिनेमा. इस सवाल के साथ मैं निकला मुंबई की सड़कों पर खटखटाने कुछ फ़िल्मकारों के दरवाज़े.
सीधे मुंह राजनीतिक फ़िल्म परोसना मुश्किल – श्याम बेनेगल
कई मुद्दों पर फ़िल्म बनाने वाले श्याम बेनेगल ने कई ऐसी फ़िल्में बनाईं हैं जिनमें उन्होंने पॉलिटिकल समस्या को छेड़ा तो, पर व्यंग्य के साथ. राज्यसभा सदस्य रह चुके श्याम बेनेगल ने मुझे बताया, "हमारे देश में सेंसर काफ़ी संवेदनशील है. अगर हमने चाह कर एक राजनीतिक फ़िल्म बना भी ली तो सेंसर अपनी कैंची लिए खड़ा होगा. वो नहीं चाहते की किसी भी पार्टी या किसी भी समुदाय के मकसद और उनके दृष्टिकोण सिनेमा के परदे पर दिखा कर लोगों के विचारों को बदला जाए."
फिर क्या तरीक़ा है पॉलिटिकल फ़िल्में बनाने का? बेनेगल ने कहा, "देखो अगर ऐसी फ़िल्में बनानी ही हैं तो व्यंग्य और नौटंकी को साथ लेना पड़ेगा क्योकि यहां सीधे मुंह राजनीतिक सिनेमा बनाना और बेचना मुश्किल है. कोई भी प्रोड्यूसर ऐसे विषय पर पैसे डालने से पहले तीन बार सोचेगा और इसीलिए कोई यह जोखिम नहीं उठाता. ऐसा सिर्फ़ भारत में ही नहीं विश्व भर में है."
आने वाले फ़िल्मकारों की बात करते हुए श्याम बेनेगल कहते हैं, "अगर किसी को पॉलिटिकल फ़िल्मों को बनाना है तो डाक्यूमेंट्री की तरह से बनाया जाए क्योंकि फ़ीचर फ़िल्म बनाने में ज़्यादा जोखिम है और डाक्यूमेंट्री बनाने से जिनको राजनीतिक सिनेमा के क्षेत्र में रुचि है वे देख पाएंगे."
फ़िल्मकार मतलब मनोरंजन करने वाला : आनंद गाँधी
'शिप ऑफ़ थीसियस' बनाने वाले आनंद गाँधी आजकल एक पॉलिटिकल डाक्यूमेंट्री पर काम कर रहे है. इस डाक्यूमेंट्री में आम आदमी पार्टी की दिल्ली विधानसभा चुनावों में कामयाबी और भारत में पिछले एक साल की राजनीतिक उथल पुथल को फ़िल्माया गया है.
आनंद गाँधी कहते हैं, "भारत में फ़िल्मकार का मतलब है जो आपका मनोरंजन करें, नाच गाने वाली फ़िल्में बनाए. यह इंसान अपनी फ़िल्मों के ज़रिए कभी एक पार्टी या एक समाज की गतिविधियों पर टिप्पणी या राय नहीं दे सकता. कई सालों से फ़िल्मों का मतलब ही मनोरंजन करना है. फिर पॉलिटिकल सिनेमा को कैसे जगह मिले?"
वह कहते हैं, "कई भारतीय फ़िल्में पॉलिटिकल संवाद करने में सक्षम रहीं है. जैसे कई फ़िल्मों में बेरोज़गारी, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि को दिखाया गया है. भारत में अगर कुछ सीखने का ज़रिया है तो वो है सिनेमा. पर मेरे ज़ेहन में ऐसी कोई पॉलिटिकल फ़िल्म नहीं है जो मुझे याद हो."
राजनीतिक फिल्में बनाना मुश्किल: फ़िरोज़ अब्बास ख़ान
मौजूदा चुनावी दौर में आने वाली फ़िल्म ‘देख तमाशा देख’ के निर्देशक अपनी फ़िल्म को एक राजनीतिक व्यंग्य कहकर बुलाते हैं.फ़िरोज़ अब्बास ख़ान का कहना है, "सिनेमा देखने वालों का मकसद होता है कि वे अपनी वास्तविकता भूल कर एक सपनों की दुनिया में चले जाएं. वे अपनी ज़िन्दगी की मुश्किलों को सिनेमा पर नहीं देखना चाहते. इसीलिए पॉलिटिकल सिनेमा का कम चलन है."
ख़ान से जब 'अपहरण' और 'राजनीति' जैसी फ़िल्में बनाने वाले प्रकाश झा की बात की गई तो वह बोले, "प्रकाश झा की ताज़ा फ़िल्मों में गहराई नहीं है. वो सब पुराना सा लगता है. उनकी फ़िल्मों की लपट तो पॉलिटिकल है पर अंदर की कहानी साधारण होती है, शायद वह समझ गए हैं कि मार्केट यही मांगती है."
राजनीतिक फ़िल्म बनाने का मौका भारत में बहुत कम लोगों को मिलता है. ख़ान कहते हैं कि "एक फ़िल्म के साथ बहुत से लोग जुड़ते हैं और शायद उनमें से कुछ को इस शैली पर विश्वास नहीं है. राजनीतिक विषय पर लेख लिखना आसान है, नाटक करना आसान है पर फ़िल्म बनाना. ये थोड़ा मुश्किल है."
भारत में लगभग 80 करोड़ वोटर हैं और पॉलिटिकल फ़िल्में नाममात्र की ही बनती हैं. जब तक भारतीय सिनेमा पर से ये नाच गाने वाली फ़िल्मों की मोहर नहीं उठती और जब तक निर्माताओ की राजनीति जैसे अहम मुद्दे पर फ़िल्म बनाने की इच्छा नहीं होगी तब तक यह सवाल उठता रहेगा कि ‘क्यों राजनीतिक फ़िल्मों से भागता है बॉलीवुड?’