शुक्रवार को रिलीज़ हो रही फिल्म 'की एंड का' सबसे ज़्यादा इस बात को लेकर चर्चा में है कि इसमें हीरो एक हाउस हसबैंड है। लेकिन कई पति पहले से ही असल ज़िंदगी में इस भूमिका को बख़ूबी निभा रहे हैं।


28 साल के विश्वास बालन केरल में रहते हैं। खाना पकाने, राशन-पानी ख़रीदने से लेकर बर्तन साफ़ करने तक का ज़िम्मा इनका है।विश्वास ‘हाउस हसबैंड’ हैं, यानी ‘घरेलू पति’- वो पुरुष जो घर पर रहकर घरेलू काम संभालते हैं और पत्नी कामकाजी है।धीमे-धीमे ही सही पर भारत में ये चलन देखने को मिल रहा है।तो एक हाउस हसबैंड होने के नाते उनकी रूटीन क्या रहती है?एक ‘कुशल गृहिणी’ की तरह विश्वास गिनाते हैं, "मेरी पत्नी तड़के दो-तीन बजे काम से लौटती हैं। वह दस-ग्यारह बजे उठती हैं। मैं एक-डेढ़ घंटे पहले उठ जाता हूं, खाना तैयार करता हूं। जब तक सारिका अख़बार पढ़ती हैं तब तक मैं घर का काम निपटाता हूँ। उन्हें दफ़्तर छोड़ घर का सामान खरीदता हूं और शाम को डिनर वगैरह बनाता हूँ। हमने नौकर नहीं रखा है।"


हाउस हसबैंड बनने के बाद ज़िंदगी में आए बदलाव के बारे में विश्वास कहते हैं कि वो गृहणियों की दिक़्कतों और उनके नज़रिए को बखूबी समझने लगे हैं।

सारिका ने दफ़तर से समय निकालकर हमसे बात की और बताया, "सबसे अच्छी बात है कि जब मैं रात को काम से लौटती हूं तो घर पर किसी को मेरा इंतजार होता है। मैं दिन भर की परेशानियां विश्वास के सामने उड़ेल देती हूँ। हम बातें करते हैं, बजाए इसके कि पति-पत्नी दोनों दफ़्तर से उकता कर घर पहुँचे।"पुणे के रहने वाले अतुल अग्निहोत्री 17 साल से हाउस हसबैंड हैं। 90 के दशक में इंजीनियरिंग करने के बाद उन्हें नौकरी तो मिली पर बुरी तरह शराब की लत लग गई। शादी के बाद पत्नी की कोशिशों से आदत छूटी। लेकिन नौकरी पर लौटते ही उन्हें लगा कि वो शराब से दूर नहीं रह पा रहे हैं।तब कामकाजी पत्नी अरुंधति ने प्रस्ताव रखा कि वो छह महीने घर पर रहें। इस दौरान अतुल ने अपनी नन्ही बेटी को संभालना और घर का काम करना शुरु किया। इस प्रक्रिया का पूरे घर पर बहुत अच्छा असर पड़ा।अतुल ने फ़ैसला किया वो हाउस हसबैंड बन कर रहेंगे।अतुल कहते हैं, "अगर पत्नी कह देती हैं कि इस महीने आपकी फ़लां मांग पूरी नहीं हो सकती तो इसमें दिक़्क़त कैसी? मैं जानता हूँ कि मैं कमाता नहीं हूँ। मैंने अपने खर्चे भी उस हिसाब से कम कर रखे हैं।"

अतुल के मुताबिक 'हाउस हसबैंड' होने का असर उनकी पत्नी पर पड़ा। वे बताते हैं, "वो करियर पर ध्यान देने लगीं, सेमिनार में जाने लगीं, महिला दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाने लगीं। उनकी शख्सियत में कई गुना निखार आया।"वहीं धीरेश कहते हैं कि उनका ढाई साल का बेटा अक्सर कहता है कि सब्ज़ी पापा ही बनाएँगे और शायद जेंडर की उसकी समझ बेहतर होगी। हालांकि उन्हें जोरू का ग़ुलाम जैसी बातें सुननी पड़ती हैं।तो हाउस हसबैंड होने का सबसे बड़ा फ़ायदा क्या है?विश्वास हंसते हुए कहते हैं, "रोज़ जेब खर्च मिलता है- सैलरी ऑन डिमांड, महीने के आख़िर तक रुकना नहीं पड़ता।"वहीं अतुल को एक मलाल है। वो कहते हैं, "मैंने 17 सालों में सब सीख लिया। बस गोल रोटी नहीं बनती मुझसे। वो आज भी मेरी बीवी ही बनाती हैं।"और यही हाल धीरेश का है।

Posted By: Satyendra Kumar Singh