मासूम मुस्कान को मिले खुला आसमान
मनमाफिक शिक्षा की आजादी मिले
देखिए ये मेरी निजी सोच है लेकिन कहीं न कहीं से ये हर एक से ताल्लुकात रखती है। मासूम चेहरों पर खुशी लाने की पहली कोशिश के तहत हमें आज बच्चों को आजादी दी जानी चाहिए। मेरे कहने का ये मतलब कतई नहीं है कि हम उन्हें जो जी में आए करने दें लेकिन हमें उन्हें इतनी तो छूट देनी ही होगी कि वो अपने मन मुताबिक तालीम हासिल कर सकें। पहले तो उन्हें एजुकेशन मिले। फिर वो तालीम उनकी पसंद के मुताबिक हो। पेरेंट्स से मेरी पूरी अकीदत के साथ इल्तिजा है कि वो अपनी चाहत हम बच्चों पर न थोपें। ऐसा नहीं है कि मेरी फैमिली भी दूसरों से कोई अलग थी। मेरे अबू की चाहत थी कि मैं और मेरे दोनों छोटे भाई खुशल और अटल डॉक्टर बनें। लेकिन एकदिन उन्होंने ये पाया कि नहीं, मैं शायद डॉक्टर बनने के लिए पैदा नहीं हुई हूं। उन्हें मेरे अंदर लीडरशिप के जर्म्स नजर आने लगे। अब वो रात में मेरे दोनों भाइयों के सो जाने के बाद मुझे कुछ ऐसा बताने लगे जिनके जरिए मैं अपनी कौम में लिटरेसी बढ़ा सकती थी। वो सब मेरे दिलो दिमाग में तारी होने लगा और दुनिया के सामने मलाला युसूफजई नाम की एक किरदार आपके सामने नमूदार हो गयी।
मिले खेल का माहौल
मेरा मानना है कि हम बच्चों को खेलने का भी एटमॉस्फियर अवेलेबल कराया जाना चाहिए। जरा सोचिए ये कैसा इनजस्टिस है कि खेल के मामले में हमारी कौम दुनिया के बाकी हिस्सों से बहुत पिछड़ी हुई है। इसकी वजह है कि हमारे यहां खेल के लिए माहौल ही नहीं है। जब मैं कौम कहती हूं तो इसके माने सिर्फ पाकिस्तान या मुस्लिम बिरादरी नहीं है। कौम से मेरा आशय इंडियन सब कॉन्टिनेंट में रहने वाली तमाम बिरादरियां हैं। सोच कर शर्मिंदगी होती है कि आज भी हम लड़कियां बगैर इजाजत के स्पोट्र्स में हिस्सेदारी नहीं कर सकतीं। यकीन मानिए कि अगर बच्चे खेलने लगें तो ओलम्पिक में हमारे मेडल भी दिखने लगेंगे।
डिसीजन मेकर बनने दें
सच कहूं, अपने घर में आप एक बार बच्चों को डिसीजन मेकर बनाकर देखिए आपकी दुनिया बदल जाएगी। मैं आपसे ही पूछना चाहती हूं कि आपके यहां हर रोज घर में बनने वाले खाने का मेन्यू कौन तय करता है? घर के इंटीरियर किससे पूछ कर डेकोरेट होते हैं? ईद बकरीद पर बच्चों के बनने वाले ड्रेसेज कौन तय करता है? कौन क्या पढ़ेगा या कौन किस हद तक एजुकेशन हासिल करेगा ये भी जब कोई और ही तय करेगा तो फिर हमसे मुस्कराने की क्यों उम्मीद करते हो भाई?
उम्मीदें बहुत हैं लेकिन...
मेरा बचपन अपनी सरजमीं पर गुजरा लेकिन एक हादसे के बाद आज बर्मिंघम में रहना मेरी मजबूरी है। मेरी नजर में सिचुएशन हर जगह तकरीबन एक जैसा है। चाहे वो बच्चे हों या टीन एजर, डिसाइडिंग फैक्टर आज वो नहीं हैं। कह सकते हैं कि हम सब एक बरगद के तले पलते हैं और आप हमसे आसमान की ऊंचाई तक पनपने की उम्मीद पाले हुए हैं। सीने पर हाथ रख कर सोचिए क्या ये संभव है? घर में आने वाले न्यूज पेपर तक के मामले में जब बच्चों का दखल न हो तो हालात को समझा जा सकता है।
यह भी पढ़ें : 'पाक एक मुल्क नहीं जाहिलाना सोच है'
जानें बच्चों का टेस्ट
इस दखल से मेरा ये मतलब कतई नहीं है कि हम उन्हें कुछ भी पढऩे की छूट दे दें। मेरी चाहत सिर्फ इतनी है कि न्यूज पेपर हो या मैगजीन, ऐसे मंगाए जाएं जो बच्चों के टेस्ट के मुताबिक हों। आप इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि न्यूज पेपर या मैग्जींस में ऐसा कुछ निकले जो बच्चों की साइको को सूट करते हों।
डंडे के जोर पर नहीं
निजी तौर पर मैं मजहब को बहुत मानती हूं। मेरा यकदा और यकीन अल्लाह में है। बुजुर्गों के प्रति अदब हमें विरासत में मिली है। ऐसे में डिसीप्लीन होना लाजमी है। वैसे तो हर शख्स में ये सब खुद से होना चाहिए लेकिन इसे घुट्टी की तरह आप किसी को पिला नहीं सकते। लेकिन ये भी सच है कि इसे आप डंडे के जोर पर लागू भी नहीं कर सकते। कौन किसको कितना मानेगा इसका कोई पैरामीटर नहीं हो सकता। आज दुनिया में अफरा तफरी का आलम शायद इसीलिए है कि कुछ लोग खुद को डिसाइडिंग फैक्टर मान बैठे हैं। वो ये कह रहे हैं कि हम तय करेंगे कि आप किसको, क्यों और कितना मानो। यकीनन ये एक माइंडसेट है।
बच्चों को घर लौटा दो
दर्द की एक सबसे बड़ी वजह है घर का छूट जाना। मैं इसे फेस भी कर रही हूं और फील भी। दुनिया को अपनी मिल्कियत माने बैठे लोगों से आज मेरी गुजारिश है कि वे कायनात को खुद की नहीं अल्लाह की असल चाहत के मुताबिक चलाएं। आज दुनिया भर में करोड़ों बच्चे तमाम वजहों से अपनी मिट्टी या दहलीज से दूर हो जाने को मजबूर हैं। आज मेरी इल्तिजा इस कायनात को चलाने वाले उस मालिक से है कि वो हम बच्चों को हमारा घर लौटा दें। या अल्लाह, हमारी दुआ कबूल फरमाएं। बस हमारी मुस्कान को खुला आसमान दे दें। आमीन।
यह भी पढ़ें : मुझे कुछ नहीं चाहिए मैं तो संन्यासी हूं
मां-बाप का साथ मिले
परिवार का टूटना आज बच्चों के जेहनी दर्द का सबसे बड़ा सबब है। मॉर्डन सोसायटी में हसबैंड-वाइफ के बीच छोटी-छोटी सी बात पर हो रहे अलगाव का असर बच्चों पर पड़ रहा है। सेप्रेशन के बाद पति पत्नी तो किसी दूसरे के साथ अपनी ंिजंदगी का रास्ता तलाश लेते हैं लेकिन बच्चे कहां जाएं? उनकी जिंदगी तो दोजख सरीखी हो गयी। बगैर मां बाप के जिंदगी गुजार रहे बच्चे का कलेजा खुशगवार रहे ये कैसे हो सकता है? उसके चेहरे पर मुस्कान तारी रहे, ये कैसे हो सकता है? आज तो दुआ मांगने का दौर है कि दुनिया का हर बच्चा अपने मां बाप के साथ रहे।
कानून में मिले रियायत
देखिए बच्चों की रूह किसी परिंदे की तरह होती है। उसके मन में कोई छल कपट नहीं होता। वो पानी की तरह होता है कि जहां जाता है वहां की शक्ल में ढल जाता है। वो समझिए कि ठंडी हवा का एक झोंका होता है। हमें इंटरनेशनल रूल्स रेगुलेशन में भी उसी तरह ट्रीट किया जाना चाहिए। वीजा-पासपोर्ट से लेकर तमाम तरह के नियम कानून में बच्चों को एक खास उम्र तक रियायत मिलनी चाहिए।
कोमल मन को डांटिए भी नहीं
एक आखिर इल्तिजा हर मां बाप से। प्लीज, बच्चों को मारना पीटना तो दूर डांटिए भी मत। देखिए बच्चे का मन बहुत सुकोमल होता है। मार पीट या डांट डपट का गहरा असर उसके मन पर पड़ता है। उसे प्यार से समझाइए। या यूं कहूं, उसे पुचकारिए फिर देखिए की वो जो भी करेगा अच्छा ही करेगा। हर चीज हमारे मन मुताबिक हो ये जरूरी तो नहीं है। कभी उसके मन का भी करिए फिर देखिए कि दुनिया कितनी रंगीन हो जाती है।
प्रोफाइल
जन्म 12 जुलाई 1997
जन्म स्थान मिंगोरा गांव, खैबर, पख्तून, पाकिस्तान
सम्प्रति निवास बर्मिंघम, ब्रिटेन
क्या कर रही हैं स्टूडेंट, मानवीय मामलों की पैरोकार, शिक्षा के अधिकार खासकर लड़कियों को शिक्षा दिये जाने के लिए संघर्षरत
मजहब सुन्नी, इस्लाम
पेरेंट्स अम्मी-तोर पेकी युसुफजई, अबू-जियाउद्दीन युसुफजई
अवाड्र्स नोबेल शांति पुरस्कार सखारोव प्राइज, सिमोन द बोवा प्राइज, कनाडा की मानद नागरिकता, नेशनल यूथ पीस प्राइज, इनके अलावा अन्य दर्जनों अवार्ड
Report by : Vishwanath Gokarn
vishwanath.gokarn@inext.co.in