आबादी के लिहाज से देश का सबसे बड़ा सूबा है उत्‍तर प्रदेश। कहते हैं देश की राजनीति का रुख यहां बहने वाली हवा से तय होता है। inextlive.com की स्‍पेशल सीरिज में जानिए उनकी कहानी जिन्‍हें मिली इस सूबे के 'मुख्‍यमंत्री' की कुर्सी। इस कड़ी में आज हम बात करेंगे उत्‍तर प्रदेश के दूसरे मुख्‍यमंत्री संपूर्णानंद की जो कांग्रेसी होने के बावजूद नेहरू की नीतियों की खुलेआम करते थे आलोचना...

Story by : abhishek.tiwari@inext.co.in @abhishek_awaaz

राजनीतिक उठापटक :

कहते हैं राजनीति में वही व्यक्ित सफल हो सकता है, जो कूटनीति में निपुण हो। उत्तर प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने इस विचारधारा को बिल्कुल गलत साबित कर दिया। साफ दिल वाले अध्यापक और खुले मन के साहित्यकार संपूर्णानंद जी राजनीति में अपनी अलग पहचान बना लेंगे, यह किसी ने नहीं सोचा था। शब्दों से खेलने वाला शख्स सूबे का मुखिया बनकर जनता की सेवा में लग गया था।
संपूर्णानंद का राजनीति में आना एक इत्तेफाक नहीं था, और लोगों की तरह स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले संपूर्णानंद के राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1926 में हुई थी, जब वह पहली बार कांग्रेस की ओर से खड़े होकर विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। गोविंद बल्लभ पंत जी के प्रथम मंत्रिमण्डल के सदस्य प्यारे लाल शर्मा के त्यागपत्र देने पर संपूर्णानंद जी को शिक्षा मंत्री के रूप में मंत्रि परिषद में लिया गया। उन्होंने गृह, अर्थ तथा सूचना मंत्री के रूप में भी काम किया।
गोविंद बल्लभ पंत के केंद्र सरकार में चले जाने पर 1955 में डॉ. संपूर्णानंद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और 1961 में उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। 1962 में उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। और 1967 में इस पद से अवकाश ग्रहण किया। वाराणसी से निर्वाचित संपूर्णानंद के बारे में कहा जाता था कि वह कभी जनता के बीच वोट मांगने नहीं जाते थे।

काम :
संपूर्णानंद ने कई बड़े-बड़े काम किए थे। उत्तर प्रदेश में पहली खुली जेल की शुरुआत भी संपूर्णानंद ने की थी, यह प्रयोग काफी सफल भी रहा। बाद में राजस्थान में भी इसी तरह की जेल का निर्माण किया गया। एक अध्यापक के तौर पर भी संपूर्णानंद ने अपना फर्ज अदा किया। वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा संचालित हिंद समिति की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। संपूर्णानंद की कला में काफी रुचि थी। जिसके चलते उन्होंने लखनऊ के मैरिस म्यूजिक कॉलेज को विश्वविद्यालय का दर्जा दिलवाया। देश में पहली बार कलाकारों और साहित्यकारों को शासकीय अनुदान देने की शुरुआत संपूर्णानंद के कार्यकाल में ही शुरु हुई। वृद्धावस्था की पेंशन भी आपने आरंभ की।
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व्यक्ितगत जीवन :
संपूर्णानंद का जन्म वाराणासी में 1 जनवरी सन् 1890 को एक कायस्थ परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम मुंशी विजयानंद और माता का नाम आनंदी देवी था। संपूर्णानंद जी ने 18 वर्ष की उम्र में बी.एससी. की परीक्षा पास की। उन्हें हिंदी के अलावा फ़ारसी और संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान था। इसके बाद वह प्रेम महाविद्यालय (वृंदावन) तथा बाद में डूंगर कालेज (बीकानेर) में प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। देश की पुकार पर आपने यह नौकरी छोड़ दी और फिर काशी के सुख्यात देशभक्त (स्वर्गीय) बाबू शिवप्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर ज्ञानमंडल संस्था में काम करने लगे। यहीं रहकर इन्होंने "अंतर्राष्ट्रीय विधान" लिखी और "मर्यादा" का संपादनभार भी संभाल लिया। लेखक के रूप में संपूर्णानंद ने अपनी गहरी छाप छोड़ी है। उन्होंने लगभग 45 पुस्तकों की रचना की है, जिनमें से प्राय: हिंदी भाषा में हैं। गांधी जी की पहली जीवनी 'कर्मवीर गांधी' नाम से उन्होंने ही लिखी थी।

महत्वपूर्ण बातें :
1. उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा दिनों तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड संपूर्णानंद के ही नाम है। संपूर्णानंद ने कुल 5 साल 344 दिनों तक मुख्यमंत्री पद का कार्यभार संभाला।  
2. संपूर्णानंद एक बेहतर राजनेता के साथ-साथ अच्छे लेखक भी थे। हिंदी में वैज्ञानिक उपन्यास सर्वप्रथम संपूर्णानंद ने ही लिखा था।
3. संपूर्णानंद को देश के कई विश्वविद्यालयों ने 'डॉक्टर' की उपाधि से सम्मानित किया है।
4. हिंदी साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार 'मंगलाप्रसाद पुरस्कार' भी संपूर्णानंद को मिल चुका है।
5. संपूर्णानंद एक शिक्षाविद, साहित्यकार, लेखक, पत्रकार और म्यूजीशियन भी रहे।
6. 10 जनवरी 1969 को वाराणसी में संपूर्णानंद का निधन हो गया।

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Posted By: Abhishek Kumar Tiwari