मोदी और मुसलमान: 'अविश्वास और उम्मीद भी'
पुणे में कथित रूप से हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा एक मुसलमान की हाल में हत्या पर नरेंद्र मोदी की ख़ामोशी पर वो हैरान तो नहीं लेकिन मायूस ज़रूर हैं.आम चुनाव से पहले भारत के मुसलमान मोदी पर भरोसा करने को तैयार नहीं थे, लेकिन अब जब वो बहुमत हासिल करके देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं तो उनके बारे में मुसलमानों की राय एक जैसी नहीं रही.हैदराबाद के मुसलमानों पर 2007 में हुए मक्का मस्जिद बम धमाकों के बाद 'टेरर टैग' का धब्बा लग गया था. क़सूर उनका नहीं. क़सूर अधिकारियों का था जैसा कि अदालत में बाद में सिद्ध हुआ.अब वो स्वीकार करते हैं कि मोदी केवल अब गुजरात में नहीं हैं, वो अब पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं. और वो, जैसा कि एक मुस्लिम युवा ने कहा, "अब हमारे भी प्रधानमंत्री हैं."मुहम्मद इस्माइल खान उस्मानिया विश्वविद्यालय में क़ानून की पढ़ाई कर रहे हैं.
वो कहते हैं सरकार कोई भी हो मुसलमानों पर इसका अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, "नौकरशाही और अधिकारियों का मुसलमानों के प्रति रवैया वैसा ही है. मुसलमानों का संघर्ष और मुश्किलें जारी रहेंगी. सरकार कोई भी हो इससे हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा."छवि बदलने की कोशिश
"जो वो गुजरात में 2002 में कर पाए हैं, वो राष्ट्रीय स्तर पर नहीं कर सकेंगे. इसलिए हमें उनसे डरने की ज़रूरत नहीं. "-कनीज़ फातिमा, प्राध्यापक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताइस्माइल के अनुसार नरेंद्र मोदी मुसलमानों के लिए हमेशा अस्वीकार्य रहेंगे, लेकिन कुछ क्षण सोचने के बाद वो कहते हैं, "2002 के दंगों के बाद मोदी ने अपनी छवि बदलने की कोशिश की और काफ़ी हद तक वो इसमें कामयाब भी रहे. मुझे लगता है कि हमें उनसे डरने की ज़रूरत नहीं."बुर्कापोश कनीज़ फातिमा विदेशी भाषाओं के एक विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं और मानवाधिकार के लिए लड़ती भी हैं. वो कहती हैं, "चुनाव के समय मुसलमान काफी डरे हुए थे कि मोदी को किसी तरह से आने न दिया जाए, लेकिन मुझे लगता है कि इतना शोर शराबा करने की ज़रूरत नहीं थी."वो आगे कहती हैं, "मुझे लगता है कि जो वो गुजरात में 2002 में कर पाए हैं, वो राष्ट्रीय स्तर पर नहीं कर सकेंगे. इसलिए हमें उनसे डरने की ज़रूरत नहीं."बुर्क़े के पीछे से कनीज़ फातिमा आत्मविश्वास के साथ कहती हैं कि मुसलमानों को चाहिए कि वो मोदी के साथ हो जाएं.
लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कुछ मुसलमान युवाओं का कहना था कि उन्हें इस पर 'शर्म' आती है. सैयद मुज्तबा एक बीपीओ में काम करते हैं और वो आज भी इस बात पर मातम कर रहे हैं कि मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए.वो कहते हैं, "16 मई को नतीजे आने के बाद जब ये समझ में आया कि मोदी भारी सीटों से जीते हैं, हमारा दिल टूट सा गया.''वो कहते हैं कि अब देखते हैं क्या होता है. मैंने पूछा हाथ मिलाएंगे मोदी से. वो बोले, "नहीं ये तो नहीं हो सकता." फिर रुक कर बोले, "अगर वो मुसलमानों के लिए कुछ करते हैं तो हाथ मिलाने को सोचा जा सकता है."वहीं पर बैठे उनके एक साथी ने बीच में टोका और कहा, "एक बार अगर उनसे हाथ मिलाने को हाथ आगे किया तो पीछे वापस लेते समय ये देखना पड़ेगा कि सारी उंगलियां सलामत हैं या नही." इस पर वहां मौजूद सभी युवा सहमत नज़र आए.शायद इन शब्दों में छुपा है मुसलमानों का मोदी के प्रति अविश्वास, लेकिन साथ ही एक छोटी सी उम्मीद कि वो कांग्रेस से बेहतर साबित हो सकते हैं. उनके पास एक मौक़ा है. इसे उन्हें गंवाना नहीं चाहिए.