कहा जाता है कि एक बात की बात है तैमूरी वंश का संस्थापक तैमूर लंग मशहूर इतिहासकार और समाजविज्ञानी इब्न खलदून से राजवंशों के मुक़द्दर पर चर्चा कर रहा था।


खलदून ने कहा कि किसी भी राजवंश की शानो-शौकत चार पीढ़ियों के बाद मुश्किल से ही बरक़रार रह पाती है।पहली पीढ़ी का ध्यान नए-नए इलाके फ़तह करने पर रहता है, दूसरी पीढ़ी का ध्यान प्रशासन पर। तीसरी पीढ़ी को न तो नए इलाके फ़तह करने की चिंता रहती है और न ही प्रशासन की, वो तो सिर्फ़ अपने पुरखों की जमा की गई दौलत को अपने शौक के लिए उड़ाती है और जो मन में आता है वो करती है।इसी का नतीजा होता है कि चौथी पीढ़ी आते आते वो राजवंश आमतौर पर न सिर्फ़ अपनी पूरी दौलत को उड़ा बैठता है, बल्कि उसके पास इंसानी उर्जा भी नहीं बचती है।इसीलिए जिस प्रकार किसी शाही ख़ानदान का उभार होता है, उसी के साथ उसके पतन की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है।


खलदून के मुताबिक़, ये एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और इससे बचा नहीं जा सकता है।

इस बात को अगर समकालीन भारतीय इतिहास के परिवेश में देखें तो महान नेहरू गांधी परिवार खलदून की बात को सही साबित करता प्रतीत होता है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ गांधी परिवार की चमक ही कम हो रही है। अभिनेता से नेता बने चिराग पासवान को उनके फ़ेसबुक पेज पर पसंद करने वाले भले सैकड़ों लोग हों, लेकिन जूनियर पासवान अपने पिता रामविलास पासवान की परछाईं की बराबरी भी नहीं कर पाए हैं, जो सियासत के माहिर खिलाड़ी रहे हैं।रामविलास पासवान ने चिराग को लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय बोर्ड का प्रमुख नियुक्त किया है और जब बिहार की जनता ने अपना जनादेश दिया तो उन्हें अपने बेटे की राजनीतिक सूझबूझ का पता चल गया।लोक जनशक्ति पार्टी ने 42 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन वो सिर्फ दो सीटें ही जीत पाई और उसे सिर्फ़ 4।8 फीसदी वोट हासिल हुए।उधर करुणानिधि का कुनबा भी पूरी तरह विभाजित नज़र आता है और ख़ासकर तब जब इसी साल मई में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने हैं।करुणानिधि के बेटे अलागिरी और स्टालिन, दोनों 60 की उम्र को पार कर चुके हैं और उनकी लड़ाई जगजाहिर है, जिससे नुकसान के सिवा कुछ हासिल नहीं हो रहा है।अलागिरी को डीएमके से निकाल दिया गया और अब वो चुनावों में डीएमके का खेल बिगाड़ सकते हैं, लेकिन सियासी पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि अलागिरी की हालत पिछले साल बिहार चुनावों में चिराग पासवान से भी बुरी होगी।
चरण सिंह की दमदार विरासत भी उत्तर प्रदेश में तार तार नज़र आती है। पिछले आम चुनाव में अजीत सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी, दोनों जाटों का गढ़ कहे जाने वाले बागपत और मथुरा से हार गए।कांग्रेस पार्टी में ज़्यादातर नेताओं के बेटे सिंधिया, पायलट, देवड़ा, प्रसाद जैसे कुलनामों पर सवार हैं और उन्हें अपने पिता के नामों का ही सहारा है।पीवी नरसिंह राव ने जब जितेंद्र सिंह को उत्तर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया था, तो इसे जित्ती भैया (जितेंद्र प्रसाद) का डिमोशन माना गया था क्योंकि दिल्ली दरबार में तो उन्हें राजनेताओं के बीच राजनेता माना जाता था।कुछ साल बाद उनके बेटे जितिन उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष के पद के लिए एक विश्वसनीय उम्मीदवार बनने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।ऐसे कांग्रेसियों की कोई कमी नहीं है जो मानते हैं कि सोनिया गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष पद पर बने रहना राहुल गांधी के लिए बाधा बन रहा है और वो संगठन में अपनी सोच को लागू नहीं कर पा रहे हैं।शायद नवीन पटनायक इसलिए कामयाब रहे हैं क्योंकि जब बीजू पटनायक सियासत में सक्रिय थे तो नवीन पटनायक उससे दूर थे और ज़्यादातर उनका समय विदेश में बीतता था।
राजनीति में कामयाब रहे दो अन्य बेटों, श्यामा चरण और विद्या चरण भी इसी बात को पुख़्ता करते हैं।केंद्रीय प्रांत के पहले मुख्यमंत्री पंडित रवि शंकर शुक्ल के बेटे युवा विद्या एक उभरते हुए उद्योगपित थे, जब उनका मन राजनीति में आने को हुआ। उनके बड़े भाई श्यामा चरण की सियासत में आने की उतनी ही प्रबल इच्छा थी और उन्होंने जवाहर लाल नेहरू और पंडित रवि शंकर से राजनीति में आने की इजाज़त मांगी।लेकिन एक बड़े स्वतंत्रता सेनानी रहे रवि शंकर ने उन्हें मना कर दिया। जब 1956 में उनका देहांत हुआ तो नेहरू विद्या और श्यामा, दोनों को कांग्रेस में ले आए।नेहरू ने विद्या को लोकसभा चुनाव लड़ने की सलाह दी, जबकि श्यामा ने अपने आपको राज्य की राजनीति तक सीमित रखा और दोनों भाई इस विभाजन पर 2000 तक क़ायम रहे, लेकिन जब छत्तीसगढ़ बना तो विद्या भी राज्य की राजनीति में उतर आए।याद कीजिए वर्ष 1959 को, जब इंदिरा कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं और नेहरू प्रधानमंत्री थे। इंदिरा गांधी उस समय प्रधानमंत्री नेहरू की नजदीकी सलाहकार थीं लेकिन फिर भी वो राजनीति से दूर रहती थीं और सार्वजिक जीवन की चकाचौंध भी उन्हें अपनी तरफ नहीं खींच पाती थी।

Posted By: Satyendra Kumar Singh