आत्मिक संपत्ति की महत्ता
यथार्थ गीता चतुर्विधा भजंते मां जना: सुकृतिनोर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन, 'सुकृतिन':-उत्तम अर्थात नियत कर्म करनेवाले 'अर्थाथीर्' अर्थात सकाम, 'आर्त:' अर्थात दुख से छूटने की इच्छावाले, 'जिज्ञासु:' अर्थात प्रत्यक्ष रूप से जानने की इच्छावाले और 'ज्ञानी' अर्थात जो प्रवेश की स्थिति में हैं-ये चार प्रकार के भक्तजन मुझे भजते हैं। अर्थ वह वस्तु है, जिससे हमारे शरीर अथवा संबंधों की पूर्ति हो। इसलिए अर्थ, कामनाएं सब कुछ पहले तो भगवान द्वारा पूर्ण होती हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही पूर्ण करता हूं, किंतु इतना ही वास्तविक अर्थ नहीं है। आत्मिक संपत्ति ही स्थिर संपत्ति है, यही अर्थ है। सांसारिक अर्थ की पूर्ति करते-करते भगवान वास्तविक आत्मिक संपत्ति की ओर बढ़ा देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि इतने ही से मेरा भक्त सुखी नहीं होगा। इसलिए वे आत्मिक संपत्ति भी उसे देने लगते हैं। -------------निर्झरिणी जीवन एक यात्रा है न कि दौड़। यह मानव जीवन सिर्फ एक बार मिलता है। इसलिए सही अवसर पहचानें और आगे बढ़ें। -सर्वपल्ली राधाकृष्णन