जानें सावन में भस्म लगाने का महत्व? त्रिपुण्ड धारण करने से मिलता है भोग और मोक्ष
भस्म संपूर्ण मंगलों को देने वाला तथा उत्तम है; उसके दो भेद बताए गए हैं; उन दो भेदों का वर्णन इस प्रकार है- एक को महाभस्म जानना चाहिए और दूसरे को स्वल्पभस्म। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। वह तीन प्रकार का कहा गया है -श्रौत, स्मार्त और लौकिक। स्वल्पभस्म के भी बहुत से भेंदों का वर्णन किया गया है। श्रौत और स्मार्त भस्म को केवल द्विजों के ही उपयोग में आने के योग्य कहा गया है। तीसरा जो लौकिक भस्म है वह अन्य सब लोगों के भी उपयोग में आ सकता है।
श्रेष्ठ महर्षियों ने यह बताया है कि द्विजों को वैदिक मंत्र के उच्चारण पूर्वक भस्म धारण करना चाहिए। दूसरे लोगों के लिए बिना मंत्र के ही केवल धारण करने का विधान है। जले हुए गोबर से प्रगट होने वाला भस्म आग्नेय कहलाता है। वह भी त्रिपुण्ड का द्रव्य है, ऐसा कहा गया है। अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म का भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिए। अन्य यज्ञ से प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र धारण के काम आ सकता है।
जाबालोपनिषद् में आए हुए 'अग्नि' इत्यादि सात मंत्रों द्वारा जल मिश्रित भस्म से धूलन (विभिन्न अंगो मे मर्दन या लेपन) करना चाहिये। महर्षि जाबालि ने सभी वर्णों और आश्रमों के लिए मंत्र से या बिना मंत्र के भी आदरपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड लगाने की आवश्यकता बताई है। समस्त अंगों में सजल भस्म को मलना अथवा विभिन्न अंगों में तिरछा त्रिपुण्ड लगाना इन कार्यों को मोक्षार्थी पुरुष प्रमाद से भी ना छोड़े, ऐसा श्रुति का आदेश है।
त्रिपुण्ड्र क्या है?भगवान शिव और विष्णु ने भी तिर्यक त्रिपुण्ड धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और लक्ष्मी देवी ने भी वाणी द्वारा इसकी प्रशंसा की है। ब्राम्हणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा जाति भ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्धूलन एवं त्रिपुण्ड के रूप में भस्म धारण किया है। ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानों में जो भस्म से तीन तिरछी रेखाएं बनाई जाती है उन्हीं को विद्वानों ने त्रिपुण्ड कहा है।
भौहों के मध्य भाग से लेकर जहां तक भौहों का अंत है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाट में धारण करना चाहिए। मध्यमा और अनामिका अंगुली से दो रेखाएं करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है। अथवा बीच की तीन अंगुलियों से भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्ति भाव से ललाट में त्रिपुण्ड्र धारण करें। त्रिपुण्ड्र अत्यंत उत्तम तथा भोग और मोक्ष को देने वाला है। त्रिपुंड की तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के नौ, नौ, देवता हैं जो सभी अंगों में स्थित हैं।
भोग और मोक्ष प्रदान करता त्रिपुण्डदेवताओं को उत्तम भक्ति भाव से नित्य नमस्कार करके स्नान आदि से शुद्ध हुआ पुरुष यदि त्रिपुण्ड धारण करें तो भोग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है।कहां पर लगाएं भस्ममस्तक, दोनों भुजाएं, हृदय, और नाभि,- इन पांच स्थानों को भस्मवेत्ता पुरुषों ने भस्म धारण के योग्य बताया है। यथासंभव देश, काल आदि की अपेक्षा रखते हुए उद्धूलन (भस्म) को अभिमंत्रित करना और जल में मिलाना आदि कार्य करें। यदि उद्धूलन में भी असमर्थ हो तो त्रिपुण्ड आदि लगाएं।त्रिनेत्रधारी, तीनों गुणों के आधार तथा तीनों देवताओं के जनक, भगवान शिव का स्मरण करते हुए नमः शिवाय कह कर ललाट में त्रिपुण्ड लगाएं। 'ईशाभ्यां नमः' ऐसा कहकर दोनों पार्श्व भागों में त्रिपुण्ड धारण करें। बीजाभ्यां नम: कहकर दोनों कलाइयों में भस्म लगावें। पितृभ्यां नमः कहकर नीचे के अंग में, उमेशाभ्यां नम: कहकर ऊपर के अंग में, भीमाय नमः कह कर पीठ में और सिर के पिछले भाग में त्रिपुंड लगाना चाहिए। (शि.पु.वि.26)ज्योतिषाचार्य पं गणेश प्रसाद मिश्र, शोध छात्र, ज्योतिष विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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