भविष्य के लिए हम अपने श्रेष्ठ कर्मों का खाता जमा करें। इसके लिए त्याग तपस्या सेवा तथा दिव्यगुणों की धारणा द्वारा अन्य आत्माओं को सुख शांति दें ताकि यह श्रेष्ठ व पवित्र कर्मों की पूंजी हम अपने साथ ले जाएं।


इस बात में दो राय नहीं कि हम सभी जीवन में खुश रहना चाहते हैं, परंतु खुशी अपने आप नहीं मिलती अपितु यह दूसरों को देने से मिलती है। आमतौर पर हम दूसरों से सम्मान, प्रेम एवं सहयोग की अपेक्षा रखते हैं परंतु जब तक हमने स्वयं इनको दूसरों को नहीं दिया, तो फिर वह हमें कहां से और क्यों मिलेंगे? अर्थात् हमने बीज बोया ही नहीं तो फसल कहां से मिलेगी? अत: प्राप्त करने के लिए पहले हमें देना होगा, यह समझ धारण करना बहुत जरूरी है।
मनुष्यों को कर्म सिद्धांत को समझना और उस पर अमल करना चाहिए तभी सहनशीलता के साथ कर्मठता आती है। केवल यह सोच लेना कि वर्तमान में मेरे साथ जो हो रहा है, वह मेरे पूर्व कर्मों का फल है, मेरी किस्मत ही ऐसी है इसलिए मैं कुछ नहीं कर सकता, गलत है। कर्म-सिद्धांत को समझने के बाद हमारे अंदर सहनशक्ति आती है। कर्म-सिद्धांत हमें यह भी सिखाता है कि अब यदि हम श्रेष्ठ और पवित्र कर्म करेंगे तो हम भविष्य का जीवन अपनी इच्छानुसार बना सकेंगे।


हम केवल किस्मत के गुलाम नहीं, बल्कि श्रेष्ठ कर्म करके अपनी तकदीर के मालिक बन सकते हैं। इतना ही नहीं, हम अपने श्रेष्ठ उदाहरण द्वारा दूसरे मनुष्यों को प्रेरित भी कर सकते हैं। परंतु केवल कर्म के सिद्धांत को समझना ही काफी नहीं है, यह भी समझना आवश्यक है कि विकर्मों से कैसे मुक्ति पाएं तथा श्रेष्ठ कर्मों का खाता कैसे बढ़ाएं। इसके लिए हमें कुछ महत्वपूर्ण बातों को समझना होगा। पहला- हम अब कोई नकारात्मक कर्म न करें. जो कर्म काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईष्र्या, बदले की भावना आदि के वश में किए जाते हैं, वे विकर्म बनते हैं। दूसरा- हम अपने पूर्व जन्मों में किए हुए पाप-कर्मों को समाप्त करें। इसके लिए राजयोग का अभ्यास करें ताकि योग-अग्नि में हमारे पाप भस्म हो सकें। तीसरा- भविष्य के लिए हम अपने श्रेष्ठ कर्मों का खाता जमा करें। इसके लिए त्याग, तपस्या, सेवा तथा दिव्यगुणों की धारणा द्वारा अन्य आत्माओं को सुख, शांति दें ताकि यह श्रेष्ठ व पवित्र कर्मों की पूंजी हम अपने साथ ले जाएं। मिलता है सत्कर्मों का प्रतिफल

कर्म बीज है और सुख-दु:ख उसके फल। अत: हमें सदैव याद रखना चाहिए कि बुरे कर्म दु:ख और दुष्परिणाम उत्पन्न करते हैं और सत्कर्मों के प्रतिफल सुख एवं सत्परिणामों के रूप में सामने आते हैं। परिणाम के समय में अंतर हो सकता है, पर उसके अन्यथा होने की कोई गुंजाइश नहीं। तो यदि हम पूर्व में किए पापकर्म के फल से बचना चाहते हैं, तो हमें ज्यादा से ज्यादा सत्कर्म करने का पुरुषार्थ करना चाहिए और योगबल से पुराने कर्मों के बीज जला देने चाहिए।राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंजजी

Posted By: Kartikeya Tiwari