मुश्किल डगर पर भारत-ब्रिटेन का दोस्ताना
बसों, टैक्सियों और होर्डिंग्स के ज़रिए चलाए गए इस प्रचार अभियान का उद्देश्य 'ग्रेट ब्रिटेन' को प्रमोट करना था और और इसे दुनिया भर में दिखाया गया. ये विज्ञापन बेहद सतही तौर पर जारी किए गए थे और नए दौर के भारत के भारी-भरकम विरोधाभासों के उलट ये आश्चर्यजनक रूप से बेमेल भी थे.जैसे कि इस 'महान' अभियान के पीछे मौजूद लोगों को ये पता ही नहीं था कि वे यहाँ किनसे बात कर रहे हैं और किस बारे में. कुछ ऐसी ही ग़लतियाँ ब्रिटेन में भारत के साथ रिश्तों को लेकर भी हुई हैं.उत्साही मिज़ाज वाले प्रधानमंत्री डेविड कैमरन की अगुवाई वाली सरकार की पेशकश ऊपर से तो आकर्षित करती है. लेकिन भारत के नज़रिए से देखें तो इस पैकेज को खोलने पर ये वैसा नहीं लगता जैसा कि विज्ञापन में दिखता था. इसके पीछे वजह भी है.
ज्यादातर लोग ये मानने लगे हैं कि ब्रिटेन बाहर से आए लोगों के लिए अपने दरवाज़े बंद कर रहा है. हालांकि ब्रिटेन की कूटनीति से जुड़े लोग इस सोच को ग़लत क़रार देते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री कैमरन बाहर से आए लोगों को रोकने के घरेलू दबाव पर अगर कुछ करते हैं तो बाहर उनकी मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं.
और कैमरन की बदली हुई भूमिका में भारतीय उन्हें एक ऐसे बेकरार व्यक्ति के तौर पर देख रहे हैं जोकि ब्रिटेन के एक पूर्व उपनिवेश को एक बार फिर से मौक़ा देने के लिए समझाने की कोशिश कर रहा है.तीसरी यात्रा
इस बीच कई अन्य पश्चिमी देश भारतीय छात्रों को अपनी ओर लुभाने के लिए कोशिश कर रहे हैं. भारतीय कंपनियाँ ब्रिटेन के कारोबारी जगत में अपना दख़ल लगातार बढ़ा रही हैं और जब बात ठेके जीतने की आती है तो ब्रितानी कंपनियाँ उनसे पिछड़ जाती हैं.अभी भी दक्षिण एशिया के बाहर किसी अन्य देश की तुलना में भारत के रिश्ते ब्रिटेन के साथ सबसे ज्यादा गहरे हैं. भारत ब्रिटेन को पसंद तो करना चाहता है लेकिन वह डेविड कैमरन के तीसरी बार भारत आने से ज्यादा की उम्मीद रखता है.