गुरु हरगोबिंद सिंह: मुगलों को हर युद्ध में चटाई धूल, ऐसे की राजधर्म की स्थापना
डॉ. सत्येन्द्र पाल सिंह। लाहौर में मुगल बादशाह जहांगीर के आदेश पर पिता गुरु अर्जन देव की हुई शहादत के बाद जब गुरु हरगोबिंद जी गुरुगद्दी पर आसीन हुए, तो उन्होंने कई नई परंपराएं स्थापित की। उन्होंने परंपरागत टोपी और सेली के स्थान पर पगड़ी बांधी और उस पर कलगी सजाई। इसके साथ उन्होंने एक साथ दो तलवारें धारण कीं। एक तलवार धर्म और दूसरी राजसत्ता की प्रतीक थी।
गुरु हरगोबिंद जी ने धर्म की शोभा बनाई
गुरु हरगोबिंद जी ने वीर योद्धाओं की एक सेना भी गठित की। उस समय तक भारत में मुगलों का आधिपत्य हो चुका था और उनकी धर्मांध नीतियों से पूरा समाज त्राहि-त्राहि कर रहा था। धर्म की प्रतिष्ठा बचाने का यही एकमात्र विकल्प बचा था। इसका दूसरा पक्ष धर्म की सर्वोच्चता स्थापित करना था। राज सत्ता ने धर्म को अपने अधीन कर लिया था। इससे धर्म निरीह दिख रहा था और अपने संरक्षण के लिए राज सत्ता पर आश्रित हो गया था। गुरु हरगोबिंद जी ने इस अवधारणा को तोड़ते हुए धर्म की शोभा बनाई।
उन्होंने अमृतसर में श्री हरिमंदिर साहिब के ठीक सामने श्री अकाल तख्त साहिब का निर्माण कराया। यह राज सत्ता को संदेश था कि संसार में वास्तविक राज धर्म का है। राज्य और समाज का स्थान धर्म के अधीन है। इसे 'मीरी और पीरी का सिद्धांत' भी कहा गया। गुरु हरगोबिंद जी ने जहां धर्म प्रचार पर अपना ध्यान केंद्रित किया, वहीं सिखों में वीरता की भावना भी भरी। मुगलों से उनके चार युद्ध हुए और सभी में उन्होंने विजय प्राप्त की। अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग गुरु जी ने मात्र आक्रमणों का उत्तर देने के लिए किया और कभी किसी भूभाग पर कोई अधिकार नहीं जमाया। उन्होंने शक्ति के संयम और धर्म की सर्वोच्चता का अद्भुत आदर्श स्थापित किया। गुरु हरगोबिंद जी सिखों के छठे गुरु थे।