लड़कियां क्या-क्या नहीं कर सकतीं अगर चाहें तो। उन्हें कम आंकने वालों को एकदम करारा जवाब है फिल्म गुंजन सक्सेना। ऐसे लोगों को भी यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए जो किसी फ्लाइट में बैठने के बाद अगर अनाउसमेंट में सुनते हैं कि पायलट लड़की है तो नाक-मुंह सिकोड़ने लगते हैं या फिर उनका मजाक उड़ाते हैं। ऐसे लोगों के लिए भी मिसाल है यह फिल्म।

फिल्म : गुंजन सक्सेना -द कारगिल गर्ल
कलाकार : जान्हवी कपूर, पंकज त्रिपाठी, अंगद बेदी, विनीत कुमार सिंह, मानव विज, मनीष वर्मा, आयशा रज़ा मिश्रा
निर्देशक : शरण शर्मा
लेखन : निखिल मल्होत्रा, शरण कुमार
निर्माता : धर्मा प्रोडक्शन , ए सेल विजन प्रोडक्शंस
ओ टी टी चैनल : नेटफ्लिक्स
रेटिंग : 3. 5 स्टार

यह फिल्म एक ऐसी लड़की की कहानी है, जिसने सपना देखा है कि उससे पायलट बनना है। लेकिन लोगों को लगता है कि वह थोड़ी कर पाएगी। ऐसे में गुंजन देश का नाम रौशन करती हैं और कुछ कर दिखाती हैं।वह न सिर्फ पायलट बनती हैं, बल्कि कारगिल जैसे वॉर में उन्होंने अलग ही एक पहचान बना डाली । वह हस्ताक्षर बन गईं। बच्चियों के साथ उनके पेरेंट्स को भी क्यों देखनी चाहिए यह फिल्म। साथ ही जान्हवी कपूर को लेकर नेपोटिज्म पर बहस करने वालों को भी यह फिल्म देख लेनी चाहिए। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं, जानें इस रिव्यु में

क्या है कहानी
कहानी लखनऊ की है। नौवें दशक के वक़्त की है और बेहद अहम है। फिल्म पूर्व भारतीय वायुसेना की पायलट गुंजन सक्सेना की जिंदगी की सच्ची घटनाओं पर आधारित है। फिल्म इस पर केंद्रित है कि गुंजन ( जान्हवी) ने किस तरह पुरुषों की भीड़ में अपने लिए न सिर्फ जगह बनायीं, बल्कि उन तमाम महिलाएं का प्रतिनिधत्व करती हैं, जो इस सोच से कई बार आगे नहीं बढ़ पाती हैं कि वह नहीं कर पाएंगी। यह गुंजन के संघर्ष, एक महिला के अस्तित्व और समाज की रूढ़िवादी सोच, महिला को तकनीकी हैंडीकैप समझने वालों को करारा जवाब है यह फिल्म। निर्देशक शरण शर्मा ने इसे बखूबी दर्शाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिल्म गुंजन की आम जिंदगी से शुरू होती हुई उस वक़्त खास हो जाती है, जब 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान सैनिकों को हथियार पहुंचाने, घायल सैनिकों की मदद करने में और पाकिस्तानी आतंकियों और सैनिकों से अपने देश की सुरक्षा की पूरी घटना सामने आती है।

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सारी बंदिशों से लड़ी
दिलचस्प फिल्म में यह देखना है कि कारगिल से पहले गुंजन ने किस तरह उन सारी बंदिशों से लड़ा है, जो उनकी जिंदगी में आये पुरुषों ने उनके सामने खड़ी की है। फिर चाहे वह गुंजन के भाई अंशुमन (अंगद बेदी ) से लेकर ऑफिसर (विनीत कुमार सिंह) तक। लेकिन पिता अनूप सक्सेना (पंकज त्रिपाठी) को बेटी पर यकीन होता है और वह उसके सपने को मरते नहीं देखना चाहते हैं। अनूप सक्सेना जैसे पिता का होना हर परिवार में जरूरी है, जो बेटा बेटी के भेदभाव से हट कर टैलेंट सँवारने में लग गए।

क्या है अच्छा
फिल्म में हौसला बढ़ाने वाले इतने अच्छे संवाद हैं कि फिल्म थियटर में रिलीज होती तो सीटियां बजती ही। फिल्म महिलाओं की हौसला अफजाई करती है, लेकिन बिना उन्हें बहुत बेबस और मेलोड्रामटिक दिखाए हुए । विषय अपने आप में रोचक है। यह फिल्म बननी बेहद जरूरी थी, क्योंकि आम लोगों तक और खासकर लड़कियों तक यह बात पहुंचनी चाहिए थी कि गुंजन ने किस कदर रिस्क लेने से इंकार नहीं किया, अपने सपने देखे तो उसे पूरा करने के लिए डटी रहीं। यह गुंजन की जिंदगी से जुड़े हर पहलू को रोचक तरीके से दर्शाती है। निर्देशक और लेखन टीम बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने एक सार्थक फिल्म बनाई है।

क्या है बुरा
फिल्म की अवधि थोड़ी कम होती तो और सार्थक होती फिल्म। साथ ही मुख्य किरदार को निखारने में कुछ दृश्यों में सहयोगी कलाकारों पर कम ध्यान दिया गया है। यह फिल्म को थोड़ी कमजोर जरूर बनाती है।

अभिनय
जान्हवी कपूर पर आंखें तरेरने वालों को अच्छा जवाब है यह फिल्म। जान्हवी धड़क से अधिक प्रभावित और मैच्योर तरीके से नजर आई हैं। उन्होंने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। विनीत कुमार सिंह और अंगद बेदी ने अपने किरदारों में जम कर मेहनत की है और उनकी मेहनत रंग लाई है। पंकज एक बार फिर से दिल जीत जाते हैं। उन्होंने दिलचस्प किरदार निभाया है। मानव विज का भी काम अच्छा है। आयशा रजा का भी काम बढ़िया है।

वर्डिक्ट : फिल्म दर्शकों को बेहद पसंद आएगी।

Review By: अनु वर्मा

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari