जीवी मावलंकर, जिन्हें कहा जाता है फाॅदर आॅफ लोकसभा
कानपुर। गणेश वासुदेव मावलंकर को जीवी मावलंकर के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म 27 नवम्बर, 1888 को वर्तमान गुजरात के बड़ौदा में हुआ था। भारत सरकार की अधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक उनका परिवार बंबई राज्य के रत्नागिरी जिले में मावलंग का मूल निवासी था। बेहद कम समय में प्रतिष्ठित वकील बने थेमावलंकर ने 1908 में गुजरात कालेज से विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1912 में इन्होंने कानून की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1913 में वकालत शुरू की और देखते ही देखते बेहद कम समय में प्रतिष्ठित वकील बन गए थे। इसके साथ ही वह सामाजिक कार्यों में भी एक्टिव रहते थे। हर किसी के संग निष्पक्ष व्यवहार करते थे
मावलंकर दयालु होने के साथ हर किसी के संग निष्पक्ष व्यवहार करते थे। वह बहुत छोटी उम्र से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जो महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश की स्वतंत्रता के लिए होने वाले आंदाेलनों में शामिल हाे गए थे। इतना ही नहीं उन्होंने खेरा-नो-रेंट आन्दोलन में अति सक्रिय भूमिका निभायी 1937 में बंबई विधानसभा के लिए चुने गए
जीवी मावलंकर 1937 में अहमदाबाद नगर का प्रतिनिधित्व करते हुए बंबई विधान सभा के लिए चुने गए। वह साल 1937 से 1946 तक बंबई लेजिस्लेटिव एसेम्बली के अध्यक्ष रहे। इसके बाद कांग्रेस ने जनवरी 1946 में उन्हें छठी केन्द्रीय विधान सभा के प्रेजिडेंटशिप के लिए सहज प्रत्याशी बनाया।पीएम ने लोकसभा के अध्यक्ष के लिए दिया था नामवहीं 15 मई, 1952 को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत के प्रथम लोक सभा के अध्यक्ष पद के लिए मावलंकर का नाम दिया था। सदन ने प्रस्ताव को 55 के मुकाबले 394 मतों से स्वीकार किया। मावलंकर ने चार वर्षों तक लोक सभा के अध्यक्ष के रूप में अच्छी भूमिका निभाई थी। पुस्तक मनावतना झरना काफी चर्चा मेें रहीजीवी मावलंकर की कई साहित्यिक उपलब्धियां भी थीं। गुजराती भाषा में उनकी पुस्तक मनावतना झरना काफी चर्चा मेें रही। इस पुस्तक मेे उन्हाेंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 1942 से 1944 के बीच जेल यातना के दौरान मिले कैदियों की सच्ची कहानियाें का खुलकर जिक्र किया है। 1956 को अहमदाबाद में अंतिम सांस लीमावलंकर का अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल उनके आकस्मिक निधन के साथ ही समाप्त हुअा था। एक यात्रा के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। 27 फरवरी, 1956 को अहमदाबाद में उन्हें अंतिम सांस ली थी। जवाहर लाल नेहरू ने लोक सभा के जनक की उपाधि से सम्मानित किया था।