गैंग्स ऑफ वासेपुर से लेकर एयरपोर्ट पर सिंघाड़े छीलने तक गजब है Varun Grover का अंदाज और ऐसी ही है उनकी लाइफ
कानपुर (इंटरनेट डेस्क)। एयरपोर्ट पर सिंघाड़ा छील कर खाने की बात हो या फिर अपुनइच भगवान है जैसा कल्ट डायलॉग, इन सबके पीछे कैसी है वरूण की असली लाइफस्टाइल. आइये जानते हैं
क्लाइमेट चेंज पर फिल्में क्यों नहीं बन रही हैं?
इस सवाल पर वरूण का कहना है कि ये बहुत जरूरी सवाल है. इस सवाल के लिए थैंक्यू. मैं भी इंडस्ट्री के लोगों से पूछ चुका हूं. इस सब्जेक्ट पर मैं कुछ लिख भी रहा हूं और चाहता हूं, कि इस पर कोई फिल्म बने. वरूण का कहना है कि इंडस्ट्री के काम करने का तरीका अलग है, ये मार्केट के अनुसार चलती है. मार्केट एनालिसिस कहता है कि जनता हॉरर देखना चाहती है,कामेडी देखना चाहती है,सीरियस मुद्दे नहीं देखना चाहती है. इसी तरह से भेड़िया फिल्म भी एक सीरियस मुद्दे पर बनी थी और इसे कामेड़ी की शक्ल देकर बनाया था, फिर भी फिल्म उतनी नहीं चली. ऐसे में क्लाइमेट चेंज एक बहुत ही बड़ा और सीरीयस मुद्दा है. मैं बस यही कहूंगा की कोशिश करते रहना चाहिए.
बिल्डिंग बनाने वालों की जगह पहाड़ बनाने वालों की सुनें
वरूण से हमने पूछा कि आपको क्या लगता है लोग इन मुद्दों को लेकर सीरियस होंगे या नहीं. ऐसे में उनका कहना है कि समझेंगे मगर 10 सालों के बाद और तब तक काफी देर हो चुकी होगी. सरकारों को इसे लेकर कड़ा रूख अपनाना चाहिए. वरूण का कहना है कि पहाड़ों के लिए काम करने वालों की सुननी चाहिए, ना कि पहाड़ों तो चीरकर सड़कें और बिल्डिंग्स बनाने वालों की.
सस्टेनेबल लाइफ के बारे में पूछने पर वरूण ने बताया कि वो और उनकी पत्नी कई तरह के काम करते है, जिनमें से एक है वेस्ट सेगीग्रेट. वरूण बताते हैं कि उनका परिवार प्लास्टिक का यूज नहीं करता है, सामान लेने जाना हो तो वो अपना थैला या डब्बा अपने साथ लेकर जाते हैं. इसके साथ ही वो और उनकी पत्नी पब्लिक प्लेसेस से प्लास्टिक इकठ्ठा करने का भी काम करते हैं. कई बार तो प्लास्टिक का सामान इधर उधर फेंकने को लेकर उनकी लोगों से लड़ाई भी हो जाती है. वरूण कहते हैं कि,घर के अंदर बिजली के यूज को लेकर मैं पर्टिकुलर हूं. एसी अभी नहीं लगाया है. इससे निकलने वाली गैसेस इन्वायरमेंट के लिए काफी हानिकारक हैं. साल में 15 दिन थोड़ी ज्यादा ह्यूमिड और गर्मी सहन करनी पड़ती है लेकिन ये इतनी भी बड़ी बात नहीं है.
लोकल ट्रेन और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का करते हैं यूज
इस पूरी बातचीत के बीच में वरूण ने सबसे चौंकाने वाली बात ये बतायी कि उन्होंने मुंबई में अभी तक कार नहीं खरीदी है. वरूण कहते हैं कि हमनें अभी तक कार नहीं खरीदी है, हम आज भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट का यूज करते हैं. ऑटो, लोकल ट्रेन या टैक्सी से जिंदगी आसान हो जाती है. वरूण ने लोकल ट्रेन में हुए एक इंसीडेट को याद करते हुए बताया- &किसी ने मुझे लोकल ट्रेन में ट्रैवल करते देखा तो बोला कि यह तो दुर्भाग्य है कि आप ट्रेन से ट्रैवल कर रहे हैं. पब्लिक ट्रांसपोर्ट इस्तेमाल करने से पैसे भी बच रहे हैं और ट्रैफिक भी नहीं मिल रहा है. समय भी बच रहा है. लोकल ट्रेन मे फर्स्ट क्लास का टिकट 60 रुपए का है. जनरल का 15 रूपए का है, जिसमें मैं हवा खाते हुए बढ़िया नजारे देखते हुए सफर कर सकता हूं. मैं तो चाहता हूं कि लोग ऐसे ट्रैवल करें. मैं मुंबई से पूना ट्रेन से जाता हूं. समय पैसा इत्मिनान सब रहता है इसमें.
एयरपोर्ट पर सिंघाड़ा छीलना, कल्पना थी या सच्चाई
इस सवाल पर वरूण बताते हैं , यह सच था. मैं एयरपोर्ट पर सिंघाडा खा रहा था. जब ले जाने लगा तो सिक्योरिटी ने मना किया और कहा आप सारे छीलकर ले जा सकते हैं. मैंने छीलना शुरू किया. दो-तीन के बाद उनको दया आ गई और फिर उन्होंने मुझे अंदर जाने दिया. मैं नेचुरल चीजों से जुड़ा रहना बहुत पसंद करता हूं. मैं देसी चीजों और फलों को खाना पसंद करता हूं. ज्वार बाजरे की रोटी, जामुन, भुट्टा और वो सारे मौसमी फल जो हमारे लोकल मार्केट में मिलते हैं.
उस नॉवेल में किरदार के अंदर सुपीरियोअरिटी कॉम्पलेक्स था. जिसे हमने सेक्रेड गेम्स में दिखाया. बाकी फिर नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने उसे अदा किया, फिर बहुत सारी चीजें जुड़ती गई. फिल्म हिस्ट्री में अच्छे डॉयलॉग हमेशा आयकॉनिक इसलिए बने क्योंकि इसमें एक्टर डॉयरेक्टर का योगदान रहा है. आप एक्टिंग भी करने लगे हैं? यह आप करना चाहते थे ?
नहीं मुझे यह नहीं पसंद है. अवनिता मेरी करीबी दोस्त हैं. उन्होंने &कला&य फिल्म के रोल के लिए मुझे कहा और बोला कि यह उन्होंने मेरे लिए ही लिखा है. उस रोल में अनविता दत्त और कला फिल्म के डॉयलॉग की वजह से वह रोल संभव हो पाया. कई लोगों ने तारीफ किया. एक्टिंग मेरी लिस्ट ऑफ प्रायोरिटी में एकदम नीचे है.
क्या किताबें बच्चों से दूर हो रही हैं?
इसमें बच्चों की गलती नहीं है. इंटरनेट की रंग-बिरंगी दुनिया उन्हें बाहर निकालने की जिम्मेदारी उनके पेरेंट्स की है क्योंकि असली भारत तो उसके बाहर बसता है. आप अपने देश के बारे में जानने के लिए देश को महसूस करना होगा. जैसे लखनऊ के बारे में समझने के लिए लखनऊ जाना होगा. न कि किसी व्लॉग से आप लखनऊ को समझ पाएंगे. मेरे लिए पर्सनल सा मुददा है कि आजकल के बच्चे हिंदी नहीं अंग्रेजी पढ़ते हैं, लेकिन अपनी मातृभाषा को पढ़ना और जानना जरूरी है. बच्चे नंबर पाने के लिए हिंदी पढ़ते हैं जिससे इतना डाउन फॉल आ गया है. इसके साथ लिट्रेचर ही नहीं बाहर की दुनिया भी चली गई है. मैं चाहता हूं कि हिंदी पत्रिकाएं एवेलेबल हों. लोग इस पर काम करें.
आज से चार सौ पांच सौ साल पहले देखा जाए हमारे पूरे इतिहास को भाषा ने बनयाा है. भाषा ही हमें लाइकेबल बनाती है. मैं एक्सेप्ट करता हूं कि चार हिंदी पट्टी के राज्यों से हिंदी के महान कवि और राइटर निकले हैं और फिर पंजाब से गुलजार साहब हैं इरशाद कामिल हैं. यूपी का मेरी जिंदगी में बहुत योगदान रहा है. भाषा का जो प्यार मिला और लखनऊ की जो मिठास और सहजता है बचपन से पसंद आई और उसने मेरी क्रिएटिविटी में बहुत मदद की. काशी ने सहज तरीके से कॉमेडी और कटाक्ष करना सिखाया. Interview by: Shikha Singh