फ्रीज़र में रखा दिमाग़ बरसों बाद काम आएगा
ये तीन सौ लोग उस वक़्त इस सर्द माहौल में रखे गए, जब उनके दिलों ने धड़कना बंद कर दिया था. पूरी तरह से मरने से पहले उनके दिमाग़ को फ्रीज़ कर दिया गया था. इसे ''विट्रीफ़िकेशन'' कहा जाता है.
क़ानूनी तौर पर ये सभी मर चुके हैं लेकिन अगर वो बोल सकते तो कहते कि उनके शरीर अभी लाश में तब्दील नहीं हुए हैं. डॉक्टरी ज़बान में कहें तो वो लोग सिर्फ़ बेहोश हुए हैं.
किसी को नहीं मालूम कि इन लोगों को फिर से ज़िंदा किया जा सकता है या नहीं, लेकिन बहुत से लोग ये मानने लगे हैं कि मरकर हमेशा ख़त्म होने से ये बेहतर विकल्प है.
अभी दुनिया में क़रीब 1250 ऐसे लोग हैं जो क़ानूनी तौर पर ज़िंदा हैं, वो ऐसी हालत में रखे जाने का इंतज़ार कर रहे हैं यानी क्रायोप्रेज़र्वेशन का इंतज़ार कर रहे हैं.
अमरीका के अलावा ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के दूसरे देशों में अब ऐसे केंद्र खोले जा रहे हैं, जहां लोगों के शरीर को बेहद सर्द माहौल में रखा जा रहा है. इस उम्मीद में कि शायद वो कभी ज़िंदा हो जाएं.
अमरिका के कैलिफोर्निया में सेंस रिसर्च फाउंडेशन है. ये फ़ाउंडेशन उम्र की वजह से होने वाली बीमारियों के बारे में रिसर्च करता है. इसकी प्रमुख ऑब्रे डे ग्रे कहती हैं कि ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' एक तरह की दवा ही है.
मान लीजिए कि ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' की वजह से कुछ लोग आगे चलकर ज़िंदा हो जाते हैं. तो उनके पास उस दौर में लोगों को सुनाने के लिए सिर्फ़ कहानियां नहीं होंगी. मगर उन्हें एक अजनबी दौर में अजनबियों के बीच अपनी ज़िंदगी की इमारत फिर से खड़ी करने की चुनौती होगी.
ये इस बार पर तय करेगा कि वो किस दौर में फिर से जी उठेंगे. उस वक़्त समाज की हालत कैसी होगी. इन सवालों के जवाब कोरी कल्पना ही है.
''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' के ज़रिए ज़िंदा होने वाले इंसान का तजुर्बा कैसा होगा, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि वो मरने या जमा दिए जाने के कितने वक्त बाद फिर से जी उठेगा. कुछ लोग कहते हैं कि इसमे तीस से चालीस बरस लगेंगे. हो सकता है कि इतने वक़्त बाद उस इंसान के ज़िंदा होने पर उसके पोते-पोती ही उसके स्वागत के लिए खड़े हों.
लेकिन, अगर फिर से ज़िंदा होने में सौ बरस या इससे ज़्यादा वक़्त लगेंगे तो कम से कम परिजन और रिश्तेदार तो उस शख़्स को भूल चुके होंगे.
इन हालात से निपटने के लिए डेनिस कोवाल्सकी जैसे लोग ख़ुद के अलावा अपनी बीवी और बच्चों को भी मरने के बाद ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' में रखने का रजिस्ट्रेशन करा रहे हैं. ताकि कोई न कोई परिजन फिर से ज़िंदा हुए शख़्स का स्वागत करने को तो हो.
हालांकि ऐसे दौर में भी ज़िंदा होने वाले लोगों को दूसरी चुनौतियों का सामना करना होगा. जैसे बदले हुए दौर में ख़ुद को एडजस्ट करने की चुनौती. समाज में फिर से अपनी जगह बनाने, सम्मान हासिल करने की चुनौती.
नए माहौल से तालमेल बिठाने में उन्हें बड़ी मुश्किल होगी. उन्हें अपने शरीर के साथ तालमेल बिठाने में भी दिक़्क़त हो सकती है. क्योंकि ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' में तो सिर्फ़ दिमाग़ को जमाया जाएगा.
ऐसे लोग ज़िंदा होंगे तो ख़ुद से सवाल करेंगे कि आख़िर मैं हूं तो कौन?
हालांकि कुछ जानकार ये भी कहते हैं कि ये सब मामूली दिक़्क़तें हैं. क्योंकि एकदम अनजान माहौल में पैदा होकर भी इंसान, ख़ुद को हर तरह से ढाल लेता है.
डेनिस उन लोगों की मिसाल देते हैं जो ग़रीब देशों से अमीर मुल्क़ों में जाकर बसते हैं. वो एकदम अलग माहौल में ख़ुद को ढाल ही लेते हैं.
हालांकि सवाल ये भी है कि पुराने दौर के लोग, नए ज़माने के इंसानों के साथ कैसे तालमेल बिठाएंगे? क्योंकि बदलते दौर के साथ इंसान की सोच, उसके तजुर्बे एकदम अलग हो जाते हैं. अलग दौर के लोगों में तालमेल बिठाना बहुत मुश्किल होता है.
इन तमाम सवालों के बावजूद बहुत से लोग फिर से ज़िंदा होने के विचार को एक मौक़ा देने के हक़ में हैं. मरकर हमेशा के लिए गुमनाम होने से बेहतर तो यही है कि दिमाग़ के तौर पर ही सही, किसी का अस्तित्व तो रहेगा.