50 साल पहले इसराइल और उसके पड़ोसी अरब देशों के बीच युद्ध छिड़ा था. यह युद्ध केवल छह दिन जारी रहा लेकिन उसका असर आज भी देखा जा सकता है.
साल 1948 में इसराइल के अरब पड़ोसियों ने नए स्थापित हुए इस देश के वजूद को मिटाने के लिए एक नाकाम हमला किया था. मिस्र की फ़ौज को पीछे हटाना पड़ा, लेकिन ज़मीन के एक टुकड़े में चारों तरफ से घिर कर रह गई फौज की एक टुकड़ी ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया था.मिस्र और इसराइल के नौजवान अफ़सरों के एक ग्रुप ने इस गतिरोध को तोड़ने की कोशिश की.उनमें इसराइल के एक सैनिक परिवार से ताल्लुक रखने वाले 26 वर्षीय यित्ज़ाक रॉबिन और मिस्र के 30 वर्षीय मेजर गमाल अब्दुल नासिर भी थे. रॉबिन दक्षिणी मोर्चे पर इसराइल की युद्ध कार्रवाई का नेतृत्व कर रहे थे.नाज़ियों द्वारा 60 लाख यहूदियों के नरसंहार के कुछ साल बाद पवित्र भूमि पर यहूदी राज्य की स्थापना का सपना पूरा हो गया था.
फ़लस्तीनियों ने साल 1948 की इस घटना को 'अल-नकबा' या 'विनाश' का नाम दिया. साढ़े सात लाख फ़लस्तीनियों को उनकी ज़मीन से बेदखल करके इसराइल अस्तित्व में गया और उन फ़लस्तीनियों को कभी लौटने नहीं दिया गया.ख़राब पड़ोसीइसराइल और अरब पड़ोसियों के लिए आपसी नफ़रत और एक-दूसरे को संदेह की नज़र से देखने के लिए कई कारण मौजूद थे.
1950 और 1960 के दशकों में शीत युद्ध ने अविश्वास और तनाव के माहौल में आग में घी डालने का काम किया.सोवियत संघ ने मिस्र को आधुनिक लड़ाकू विमान दिए. इसराइल की अमेरिका के साथ क़रीबी दोस्ती थी, लेकिन यह तब तक अमरीकी रक्षा सहायता प्राप्त करने वाला सबसे बड़ा देश नहीं बना था.1960 में इसराइल ने फ़्रांस से विमान और ब्रिटेन से टैंक हासिल किए.1948 के बाद इसराइल ने अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए अथक मेहनत की. उसने दस लाख से ज़्यादा यहूदी आप्रवासियों को आबाद किया. इसराइल आने वालों के लिए सेना में सेवा देना एक अनिवार्य शर्त थी.इसराइल ने जल्दी ही एक घातक फ़ौज तैयार कर ली और 1967 में वह परमाणु हथियार हासिल करने के क़रीब पहुंच गया.इसराइल में पैदा होने वाले नए इसराइली जिन्हें 'सब्रास' (हिब्रू में एक खट्टे फल का नाम) कहा जाता था, विभिन्न देशों में बसे यहूदियों की अतीत में की गई ग़लतियों को न दोहराने के लिए प्रतिबद्ध थे.रॉबिन को इसराइली फ़ौज पर पूरा भरोसा था. उनका मिशन हर युद्ध जीतना था और इसराइल एक भी युद्ध में हार बर्दाश्त नहीं कर सकता था.
जॉर्डन की भूमिका
अरब लोग राष्ट्रीयता, समाजवाद और एकता की बहुत बात करते थे, लेकिन वास्तव में वह बुरी तरह बंटे हुए थे. सीरिया और मिस्र का शीर्ष नेतृत्व अपने ख़िलाफ़ षड्यंत्र की शिकायत करता था. उनका कहना था कि जॉर्डन और सऊदी अरब के सुल्तान ये साज़िश कर रहे हैं.सऊदी अरब और जॉर्डन को ये संदेह था कि मिस्र और और सीरिया के लोकप्रिय सैनिक तानाशाह पूरी अरब दुनिया में क्रांतिकारी भावनाओं को भड़का सकते थे.जॉर्डन के शाह हुसैन ब्रिटेन और अमरीका के क़रीबी सहयोगी थे. जॉर्डन वह एकमात्र इस्लामी देश है जो 1948 की लड़ाई में विजेता रहा था.शाह हुसैन के दादा शाह अब्दुल्ला के यहूदी एजेंसी से ख़ुफ़िया रिश्ते थे. ये एजेंसी ब्रितानी प्रभुसत्ता वाले फ़लस्तीनी क्षेत्रों में यहूदियों का प्रतिनिधित्व करती थी.1948 में ब्रिटेन की वापसी के बाद इस धरती को आपस में बांट लेने की योजना पर वे काम कर रहे थे.साल 1951 में एक फ़लस्तीनी राष्ट्रवादी ने शाह अब्दुल्ला की अल अक्सा मस्जिद में हत्या कर दी.15 साल के राजकुमार हुसैन ने अपने दादा की हत्या होते देखा और उसके अगले दिन पहली बार बंदूक उठाई. एक साल बाद वो सुल्तान बन गए.
साल 1948 के युद्ध के बाद जॉर्डन और इसराइल क़रीब तो आए, लेकिन इतने क़रीब नहीं आ सके कि शांति संभव हो सके.शाह हुसैन के दौर में भी गुप्त वार्ता जारी रही. वो जॉर्डन की कमज़ोरियां जानते थे.इसका अधिकांश क्षेत्र रेगिस्तान में शामिल था और उसकी बहुसंख्यक आबादी असंतोष पीड़ित फ़लस्तीनी शरणार्थियों में शामिल थी.
इसराइल का धावाजॉर्डन के कब्ज़े वाले वेस्ट बैंक के सामुआ गांव में इसराइल ने नवंबर, 1966 में बड़ा धावा बोला. इसके बाद इसराइल के अंदर एक बारूदी सुरंग का धमाका हुआ.वेस्ट बैंक के फ़लस्तीनी इलाके में इसराइली सैन्य कार्रवाई पर बहुत रोश था. शाह हुसैन भौचक्के रह गए. उन्होंने अमरीकी ख़ुफिया एजेंसी सीआईए को बताया कि वह तीन साल से इसराइल के साथ गुप्त बातचीत कर रहे हैं और उनके इसराइली वार्ताकार ने कार्रवाई के दिन वाली सुबह भी यह आश्वासन दिया था कि जवाबी कदम नहीं उठाया जाएगा.अमरीका का रवैया सहानुभूतिपूर्ण था. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पेश किए गए इस संकल्प का भी समर्थन जिसमें समोआ हमले की निंदा की गई.शाह हुसैन ने वेस्ट बैंक में मार्शल लॉ लागू कर दिया और उन्हें लगभग यह विश्वास हो गया था कि ग़म और गुस्से का शिकार फ़लस्तीनी उनका तख़्ता पलट कर देंगे.
उन्हें यह डर पैदा हो गया कि उनकी सेना में नासिर समर्थक सैन्य अफ़सर उनके ख़िलाफ़ विद्रोह कर देंगे और इसे बहाना बनाकर इसराइल वेस्ट बैंक को हड़प कर जाएगा.वह मध्य पूर्व की दूसरी राजशाहियों जैसा अंजाम नहीं चाहते थे. इराक़ के सुल्तान शाह फ़ैसल को उनके ही राजमहल के अहाते में फ़ौजी बग़ावत के दौरान गोली मार दी गई थी. शाह फ़ैसल जॉर्डन के शाह हुसैन के भाई और दोस्त भी थे.सीरिया और इसराइल की सीमा पर बढ़ते तनाव के चलते युद्ध के बादल गहरे होते दिख रहे थे. शाह हुसैन के बारे में अमरीकियों को भी भरोसा था कि वो फ़लस्तीनियों की छापामार कार्रवाई रोकने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सीरिया इन्हें बढ़ावा दे रहा था.
रूस की दखलऔर फिर सोवियत संघ के हस्तक्षेप ने सब कुछ बदल गया. 13 मई को मॉस्को ने काहिरा को साफ़ शब्दों में चेतावनी दी कि इसराइल सीरिया से लगी अपनी सीमा पर सैनिक एकत्रित कर रहा है और वह एक हफ्ते के भीतर सीरिया पर हमला कर देगा.इस सवाल पर उस दिन से चर्चा हो रही है कि आखिर सोवियत संघ ने इस युद्ध में पहली गोली क्यों चलाई थी.दो इसराइली इतिहासकारों इसाबेला गिनोर और गिडयोन रेमेज़ का मानना है कि सोवियत संघ ने जानबूझ कर विवाद शुरू किया था.इन दोनों का कहना है कि वास्तव में सोवियत संघ इसराइल के परमाणु हथियारों की परियोजना को रोकना चाहता था और इस लड़ाई में अपनी सेनाएं भेजने तक के लिए तैयार था.इस समय मध्यम स्तर के एक सोवियत अधिकारी ने अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए को बताया था कि सोवियत संघ अरबों को उकसा रहा था कि वह अमरीका के लिए समस्याएं पैदा करें. तब अमरीका को वियतनाम में एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ा था और यदि मध्य पूर्व में एक नई जंग छिड़ जाती तो अमरीका के लिए एक नया सिरदर्द पैदा हो सकता था.सच तो यह है कि इन दिनों इसराइल और अरब पड़ोसियों को किसी के भड़काने की ज़रूरत भी नहीं थी. इसलिए दोनों पक्षों ने इस लड़ाई में छलांग लगा दी जिसकी उम्मीद दोनों एक समय से कर रहे थे.
यहूदी राज्यमिस्र में इसराइल के ख़िलाफ भावनाओं को हवा देने में नासिर के पसंदीदा रेडियो स्टेशन 'वॉल्यूम अल अरब' ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.काहिरा के इस रेडियो स्टेशन का प्रसारण पूरे मध्य पूर्व में सुना जाता था और यह नासिर की विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण औज़ार बन गया था.इसराइल ने नासिर के संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों को निकालने और सिनाई में अधिक सेना भेजने के फ़ैसले पर कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. इसलिए नासिर ने इसराइल को और उकसाने के लिए 22 मई को तिरान के रास्ते से इसराइली जहाज़ों का आना-जाना बंद कर दिया. एलात बंदरगाह तक इसराइल की पहुंच पर लगी रोक इससे पहले 1956 में हटाई गई थी.सिनाई रेगिस्तान के हवाई अड्डे पर भाषण देते हुए गमाल नासिर ने घोषणा की, 'अगर इसराइल हमें युद्ध की धमकी देता है तो हम इसका स्वागत करेंगे.'नासिर की इच्छा थी कि दुनिया भर में उनकी पहचान एक ऐसे अरब नेता की बन जाए जो यहूदी राज्य के सामने खड़ा होने की हिम्मत रखता है.इसलिए आधुनिक लड़ाकू विमान उड़ाने वाली वायुसेना के पायलटों के बीच खड़े नासिर की तस्वीर का दुनिया भर में खूब प्रचार किया गया.इस तस्वीर में वह एक ऐसे बच्चे की तरह खुश दिखाई दे रहे थे जिसने कोई ऐसी रेखा पार कर ली हो जिसकी उम्मीद किसी बच्चे से नहीं की जाती.
तिरान जलडमरूमध्यजहां तक युद्ध रुकवाने का सवाल था, अंतरराष्ट्रीय कोशिशें शुरू हो गई थीं. इसराइल के विदेश मंत्री अब्बा एबान ने भी पहली उड़ान पकड़ी और राष्ट्रपति जॉनसन से मुलाकात के लिए वॉशिंगटन रवाना हो गए.इससे पहले जब 1956 में इसराइल ने ब्रिटेन और फ्रांस के साथ एक गुप्त समझौते के तहत मिस्र पर हमला किया था तो उस समय अमरीका ने न केवल इसराइल को आक्रामक देश करार दिया था बल्कि उसे उन क्षेत्रों से बाहर जाने पर मजबूर कर दिया था जिन पर इसराइल कब्जा कर चुका था. इसीलिए इस बार इसराइल की कोशिश थी कि उसे अमरीका का समर्थन हासिल हो.राष्ट्रपति जॉनसन ने इसराइल को चेतावनी दी कि पहली गोली उसकी तरफ़ से नहीं चलनी चाहिए. उन्होंने इसराइल के विदेश मंत्री को कहा, 'आप मिस्र की चिंता न करें. मिस्र से युद्ध की संभावना कम ही है और अगर ऐसा होता है तो मुझे पता है कि आप मार-मार के उसकी हालत ख़राब कर देंगे.'राष्ट्रपति जॉनसन ने बैठक में ये संकेत भी दिया कि अगर उपयुक्त हुआ तो अमरीका शायद अपने सहयोगियों की नौसेना के साथ तिरान जलडमरूमध्य खोलने के लिए हमला कर सकता है.एब्बा एबान ने निर्णय लिया कि वे उसी गति से चलेंगे जिस पर अमरीका चल रहा है, लेकिन इसराइल सेना हमले के लिए तैयार थी और उनके जनरल भी राजनेताओं की देरी से निराश हो रहे थे.इसराइली सेना एबान के रुख से चिढ़ी हुई थी. उन्हें विदेश मंत्री के शहरी तौर तरीके रास नहीं आ रहे थे.
डर और धमकीशाह हुसैन के सबसे बड़ा मुद्दा उनका अपना अस्तित्व और सत्ता थी. इसीलिए उन्होंने न चाहते हुए भी नासिर के साथ समझौता करने का फैसला कर लिया.युद्ध के कुछ साल बाद उन्होंने इतिहासकार एवी श्लैम को बताया, 'मुझे पता था कि युद्ध हो कर रहेगा. मुझे पता था कि हम यह लड़ाई हार जाएंगे. मुझे पता था कि जॉर्डन ख़तरे में है. हमें दोनों से ख़तरा था, तो एक समाधान तो यह था कि हम वही करते जो हमने किया, और अगर हम इस विवाद से बाहर रहते तो हमारा देश दो भागों में विभाजित हो जाता.'अगर इसराइली जनरलों को वह करने दिया जाता जो वे चाहते थे तो उन्हें भरोसा था कि वो इसराइल को भारी जीत दिला सकते थे. लेकिन इसराइल में सेना के अंदरूनी मामलों पर सख्त सेंसर कारण जनरलों की बातें बाहर नहीं आ सकती थीं.और दूसरी ओर अरब रेडियो स्टेशनों और इसराइली अख़बारों में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ भयानक धमकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. इसका नतीजा यह निकला कि पूरे इसराइल पर निराशा के बादल छा गए.सरकार ने ताबूत इकट्ठे करने शुरू कर दिए और धार्मिक नेताओं ने इमरजेंसी मानते हुए सार्वजनिक पार्कों को क़ब्रिस्तान में बदलने की तैयारी शुरू कर दी.इन स्थितियों में प्रधानमंत्री लेवी एश्कोल के 28 मई के भाषण ने रही-सही कसर भी निकाल दी. भाषण के दौरान उनकी भाषा लड़खड़ा रही थी और वे अपने शब्द ठीक से चुन नहीं पा रहे थे.भाषण के बाद एक बैठक में इसराइल के जनरलों ने प्रधानमंत्री की खूब आलोचना की. जब सभी जनरल उन्हें अपशब्द कह रहे थे तो ब्रिगेडियर जर्नल एरियल शेरॉन ने चीख़ कर कहा कि प्रधानमंत्री जी 'हमने अपना सबसे बड़ा हथियार खो दिया है और वह हथियार है हमारा डर.'
अमरीकी कोशिशऔर फिर शुक्रवार दो जून को इसराइल जनरलों ने अपने रक्षा कैबिनेट में युद्ध की पुरज़ोर वकालत की. उन्होंने नेताओं को बताया कि वह मिस्र को धूल चटा सकते हैं, लेकिन वे इसमें जितनी देरी करेंगे यह काम उतना ही कठिन हो जाएगा.इससे कुछ दिन पहले इसराइली ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद के प्रमुख मियर एमिट भी एक नकली पासपोर्ट पर वॉशिंगटन यात्रा कर चुके थे. वह युद्ध का अधिक इंतज़ार नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें आशंका थी कि 50 साल तक की उम्र के लोगों की एक बड़ी संख्या को लंबे समय के लिए सेना में बुलाने के बाद देश की अर्थव्यवस्था नष्ट हो जाएगी.अमरीकियों ने भी इसराइल को स्पष्ट संकेत दे दिया. अमरीकियों को बता दिया गया था कि अब इसराइल युद्ध करने जा रहा है और वे (अमेरिकी) इस युद्ध को रोकने की कोशिश नहीं करेंगे.मोसाद के प्रमुख मियर एमिट जब विमान में वापस इसराइल आए तो अमरीका में इसराइल के राजदूत एबे हरमन भी उनके साथ थे और विमान में सभी यात्रियों के लिए गैस मास्क भी मौजूद था. वह शनिवार तीन जून को तेल अवीव हवाई अड्डे पर उतरे.एक कार इन दोनों को लेकर सीधे प्रधानमंत्री एश्कोल के निवास पर पहुंची जहां वह अपने मंत्रियों के साथ इन दोनों का इंतजार कर रहे थे. मियर एमिट की इच्छा थी कि तुरंत युद्ध शुरू कर दिया जाए जबकि एबे हरमन चाहते थे सप्ताह भर इंतज़ार किया जाए.मोशे इससे सहमत नहीं थे. उनका कहना था कि, ''अगर हम सात, नौ दिन तक इंतजार करते हैं तो हज़ारों लोग मर चुके होंगे. पहला हमला हमें करने देना चाहिए और जहां तक राजनीतिक पहलू का संबंध है, वह हम हमले के बाद देख लेंगे.''कमरे में मौजूद किसी भी व्यक्ति को अब यह संदेह नहीं रहा था कि युद्ध का फ़ैसला हो चुका है. इसराइल युद्ध करने जा रहा है.अगली ही सुबह कैबिनेट ने भी इस निर्णय की पुष्टि कर दी.नासिर की भविष्यवाणी थी कि इसराइल चार या पाँच जून को हमला कर देगा. उनकी इस भविष्यवाणी का आधार जॉर्डन घाटी और इसराइल की तरफ़ इराकी सेना का कूच करना था.
मिस्र की वायुसेना का विनाशइसराइल ने शाह हुसैन को चेतावनी दी कि युद्ध में शामिल न हों, लेकिन उन्होंने मन बना लिया था इसलिए उन्होंने जॉर्डन की काबिल सेना को मिस्र के एक अपेक्षाकृत साधारण अफ़सर की कमान में दे दिया.यरूशलम में लड़ाई की शुरुआत के आधे दिन बाद ही जॉर्डन सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी. शाह हुसैन ने इसराइल से युद्ध में दूर रह कर जान बचाने के संकेतों को टाल दिया.1966 में समोआ रेड के बाद उन्होंने इसराइल के आश्वासन पर भरोसा नहीं किया क्योंकि उनका मानना था कि अगर वह मिस्र के साथ सैन्य गठबंधन से निकले तो वह अपनी सत्ता खो देंगे.दक्षिण में इसराइल की ज़मीनी सेना सिनाई में तेज़ी से आगे बढ़ रही थी. उधर मिस्र की सेना भी बहादुरी से लड़ रही थी, लेकिन वो इसराइली सैनिकों की तरह प्रशिक्षित, लचीली और फ़ुर्तीली नहीं थी.काहिरा में सेना मुख्यालय में कमांडर डरे हुए थे. जनरल सलाहुद्दीन हदिदी मान चुके थे कि युद्ध आधा हारा जा चुका है और यह मिस्र के लिए सबसे ख़राब हार थी.लेकिन बाहर सड़कों पर लोग जश्न मना रहे थे. सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से मुहैया कराई बसों पर लोग शहर में आ रहे थे. 'वॉइस ऑफ़ अरब' ख़बरों का एक विश्वसनीय स्रोत था और वो भ्रम फैला रहा था.रात आठ बजकर 17 मिनट पर वो ये ख़बर दे रहा था कि 86 इसराइली विमान मार गिराए गए और मिस्र के टैंक इसराइल में घुस गए हैं.सिनाई में मौजूद जनरल मोहम्मद अब्दुल ग़नी बढ़ते ख़तरे के साथ ये ख़बर सुन रहे थे और वे जानते थे कि यह सब बकवास है.बरसों बाद मैंने अहमद से पूछा कि उन्होंने ये झूठ क्यों बोला. उन्होंने अपना बचाव किया, 'आप लोगों से लड़ने के लिए कह रहे थे. डांस करने के लिए नहीं, हम समझते हैं कि प्रसारण हमारा सबसे शक्तिशाली हथियार था. हमारे कई श्रोता अनपढ़ थे इसलिए रेडियो उन तक पहुँच का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत था.'1967 में जब हार की सही ख़बर सामने आई नासिर और आमिर अपने आवास पर लौट आए. अनवर सादात ने बतौर राष्ट्रपति इसराइल के साथ ऐतिहासिक शांति समझौता किया जिसके बाद उन्हीं के रक्षकों ने उनकी हत्या कर दी.
एक नया दृश्यपांच दिनों में इसराइल ने मिस्र, जॉर्डन और सीरिया की सेनाओं को उखाड़ फेंका. उसने मिस्र से गज़ा पट्टी और सिनाई, सीरिया से गोलन पहाड़ियों और जॉर्डन से वेस्ट बैंक और पूर्वी येरूशलम के इलाके छीन लिए.दो हज़ार साल में पहली बार यहूदियों के पवित्र स्थान यरूशलम पर यहूदियों का कब्ज़ा हुआ था. जिसके बाद फ़लस्तीनियों को बड़े पैमाने पर यहां से बेदखल होना पड़ा, उनकी हत्याएं हुईं हालांकि यहां 1948 जैसा मंज़र नहीं था.नासिर ने इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन लाखों लोगों के विरोध के बाद उन्हें यह फ़ैसला वापस लेना पड़ा. इसके बाद वह 1970 में अपनी मृत्यु तक वो पद पर बने रहे.फ़ील्ड मार्शल आमिर की मौत रहस्यमय परिस्थितियों में हुई. उनके परिवार का कहना है कि उन्हें ज़हर दिया गया.जॉर्डन के शाह हुसैन ने पूर्वी येरूशलम खो दिया, लेकिन उनकी सत्ता बनी रही. उन्होंने इसराइल के साथ गुप्त वार्ता जारी रखी और दोनों देशों में वर्ष 1994 में शांति समझौता हुआ.सीरिया की वायु सेना के कमांडर ने 1970 में सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. उनका नाम हफीज़ असद था और वर्ष 2000 में उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे बशर अल-असद उनके उत्तराधिकारी बने.इसराइल में प्रधानमंत्री एश्कोल का 1969 में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. उनकी विधवा मरियम का कहना था कि वह युद्ध की शाम रक्षा मंत्रालय से जबरन निकाले जाने के सदमे से कभी निकल ही नहीं पाए.एश्कोल के उत्तराधिकारी गोल्डा मेयर को वर्ष 1973 में चेतावनी दी गई कि सीरिया और मिस्र अचानक हमले की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन इसराइल अब तक 1967 में विरोधियों को दी गई मात पर इतरा रहा था.इस युद्ध में अमेरिका ने इसराइल की काफ़ी मदद की. 1967 के बाद अमरीकियों ने इसराइल को एक नई दृष्टि से देखना शुरू किया. उन्हें नौजवान इसराइलियों से प्यार हो गया जिन्होंने अरब देशों की तीन सेनाओं को हराया था.इसराइल और फ़लस्तीन में वर्ष 1967 के युद्ध के प्रभाव हुए और इसराइल ने फ़लस्तीनी ज़मीन पर कब्ज़ा शुरू कर दिया जो आज आधी सदी के बाद भी जारी है.इसराइल ने पूर्वी येरूशलम और गोलन पहाड़ी तक को मिला लिया जिसे दुनिया स्वीकार नहीं करती.युद्ध खत्म होते ही इसराइल के पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन ने जीत की चमक को लेकर चेतावनी दी. एक थिंक टैंक को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा , ''इन क्षेत्रों में रहना यहूदी राज्य को बिगाड़ देगा या शायद इसे नष्ट कर देगा. इसराइल यरूशलम को पास रखते हुए बाकी क्षेत्र अरबों को लौटा दे, चाहे यह शांति समझौते के तहत हो या उसके बिना ही.'नक्शे पर गोलन से स्वेज तक फैले और जॉर्डन नदी से लगे इसराइली राज्य के नक्शे को देखकर विदेश मंत्री एब्बा एबोन उसे शांति की गारंटी के बजाय युद्ध के निमंत्रण के रूप में देख रहे थे.
Posted By: Abhishek Kumar Tiwari