क्या आप मान कर चल रहे हैं कि आपके बच्चे अगर घर में हैं तो सुरक्षित हैं और आपकी निगरानी में हैं हाल ही में ब्लू व्हेल चैलेंज ने जिस तरह बच्चों पर प्रभाव डाला ये कहना मुनासिब नहीं कि बच्चे अब घर में भी सुरक्षित हैं। उनके साथ हर वक्त मौजूद हैं उनके स्मार्टफोन और इंटरनेट भी। अगर निगरानी की भी जाए तो कितनी जगह। इंस्टाग्राम स्नैपचैट यूट्यूब वॉट्सऐप और फेसबुक जैसे तमाम सोशल मीडिया के माध्यम बिखरे हुए हैं।

सोशल मीडिया ने तेज़ी से भारत में अपनी जगह बनाई और फेसबुक ने तो अब तक तकरीबन 20 करोड़ उपभोक्ता बना लिए हैं। फेसबुक अब आपके छोटे बच्चों को भी अपना उपभोक्ता बनाने की तैयारी कर चुका है। फेसबुक ने 6 से 12 साल के बच्चों के लिए एक नया चैटिंग ऐप लांच किया है - मैसेंजर किड्स।

इस चैटिंग ऐप की ख़ासियत है कि इस पर अभिभावकों का कंट्रोल रहेगा। बच्चे अपनी मर्ज़ी से ना किसी को जोड़ पाएंगे और ना कोई मैसेज डिलीट कर पाएंगे। सिर्फ अभिभावक ही ऐसा कर पाएंगे। फेसबुक का मानना है कि बच्चे किशोर और वयस्क लोगों के लिए बने मैसेज ऐप इस्तेमाल करते हैं जो बच्चों के लिए ठीक नहीं है।

 

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अभिवावकों के लिए मददगार?

मनोविज्ञानी अनुजा कपूर इस पर अलग नज़रिया रखती हैं।

वो कहती हैं, "इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि अगर हम बच्चों को खुद ही ओपन प्लेटफॉर्म देते हैं तो कम से कम वो छुप कर कोई काम नहीं करेंगे। ये ऐसा ही है जैसे आप बच्चों को कोई फिल्म दिखा रहे हैं मां-बाप के मार्गदर्शन में। जब हम देखेंगे कि वो चैटिंग में क्या बात कर रहा है अपने दोस्तों से तो उससे हमें अंदाज़ा होगा कि उसकी मनोवृति क्या बन रही है।"

साथ ही एक ज़रूरी सलाह भी देती हैं कि पहले मां-बाप इसके लिए खुद मानसिक तौर पर तैयार हों और उसके बाद ही बच्चों को इसका इस्तेमाल करने दें। ऐसा ना हो कि वो कोई गड़बड़ देखें और फिर बच्चे को सज़ा दें। ऐसे में फिर इस ऐप से पेरेंटिंग में मदद मिलने की गुंजाइश नहीं रहेगी।

3 साल के बेटे के पिता रोहित सकुनिया कहते हैं, "तकनीक इस तरह हमारी ज़िंदगी में घुस गई है कि मैं कोशिश भी करूं तो शायद अपने बेटे को रोक नहीं पाऊंगा। तो मैं चाहूंगा कि तकनीक ही मुझे इसका हल भी निकाल कर दे दे। अगर ऐसा ऐप है जिससे मैं ट्रैक कर सकूं कि बेटा किससे क्या शेयर कर रहा है तो ये अच्छा ही है।''

 

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डिप्रेशन के कगार पर

एक रिसर्च के मुताबिक जो बच्चे सोशल नेटवर्क पर जितना ज़्यादा वक्त बिताते हैं, वे बाकी वक्त कम खुश होते हैं।

उनमें चिंता, चिड़चिड़ापन बढ़ने लगता है और यहां तक की डिप्रेशन के कगार पर भी पहुंचने लगते हैं।

अमरीका के सिएटल शहर में 'रीस्टार्ट लाइफ सेंटर' नाम का एक रिहैब सेंटर भी है जो इंटरनेट और गेमिंग के आदी लोगों को इस लत से पीछा छुड़ाने में मदद करता है।

इस तरह का रिहैब सेंटर होना भी एक संकेत है कि आने वाले दिन में बच्चों और किशोरों के लिए ये समस्या कितने बड़े रूप में सामने आने वाली है।

Posted By: Chandramohan Mishra