बीबीसी डेमोक्रेसी डे के लिए किए गए इकॉनमिक इंटेलिजेंस यूनिट ईआईयू के शोध के अनुसार साल 2015 यूरोप के लिए राजनीतिक भूचाल वाला साल साबित हो सकता है.


इस शोध के अनुसार कुछ जनवादी पार्टियाँ चुनावी जीत हासिल कर सकते हैं, वहीं मुख्यधारा की पुरानी पार्टियों के बीच ऐसे गठबंधन हो सकते हैं जिनके बारे में पहले किसी ने कल्पना तक न की होगी.ईआईयू के अनुसार यूरोप में 'लोकतंत्र के संकट' का कारण अमीर लोगों और आम मतदाताओं के बीच बढ़ता अंतर है.इसके अनुसार, "यूरोपीय राजनीति के दिल में एक बढ़ता हुआ छेद है जिसके बारे में नए विचारों की ज़रूरत है."चुनावों में कम होती आम लोगों की भागीदारी और राष्ट्रीय दलों की सदस्यता लेने में आई गिरावट को इस संकट का मुख्य लक्षण माना जा रहा है.साल 2015 में आधुनिक ब्रितानी संसद की स्थापना के 750 साल पूरे हो रहे हैं.ब्रिटेन में राजनीतिक अस्थिरता
ईआईयू का मानना है कि डेनमार्क, फिनलैंड, स्पेन, फ्रांस, स्वीडन, जर्मनी और आयरलैंड में भी आने वाले आम चुनावों में अप्रत्याशित परिणाम आ सकते हैं. ईआईयू के अनुसार इन सभी देशों में साझा बात है जनवादी पार्टियों का उभार.ईआईयू के अनुसार, "यूरोप के सभी क्षेत्रों में व्यवस्था-विरोधी भावनाएं बढ़ी हैं. राजनीतिक अस्थिरता और गंभीर संकट की आशंका बहुत ज़्यादा है."वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी जनवादी पार्टियों ने पुरानी मुख्यधारा की पार्टियों और उनके समर्थकों के बीच पैठ बनाई है.


ईआईयू अनुमान के अनुसार पिछले पांच सालों में दुनिया के 90 देशों में बड़े विरोध प्रदर्शन हुए जिनका नेतृत्व युवा, शिक्षित, मध्य वर्ग के लोगों ने की जो अपने राजनीतिक नेताओं के पसंद नहीं करते और पारंपरिक मीडिया के बजाय ट्विटर और सोशल मीडिया को प्राथमिकता देते हैं.विरोध के कारणहॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारीईआईयू का कहना है कि हाल के वर्षों में यूरोप, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और लैटिन अमरीका में लोकप्रिय विरोध प्रदर्शनों में जबरदस्त वृद्धि हुई है.एशिया और उत्तरी अमरीका भी ऐसे प्रदर्शनों से बचे नहीं है, हालांकि यहाँ ऐसे प्रदर्शन बाक़ी क्षेत्रों की तुलना में कम हुए हैं.अलग-अलग जगहों पर इन प्रदर्शनों के कारण भिन्न-भिन्न रहे हैं. आर्थिक संकट, तानाशाही के ख़िलाफ़ विद्रोह, राजनीतिक प्रभु वर्ग तक अपनी आवाज़ पहुंचाने की कोशिश और तेज़ी से विकसित होती मुक्त बाज़ार से उपजे नए मध्य वर्ग की बढ़ती आकाँक्षाएं विरोध प्रदर्शनों का कारण रही हैं.इन हालात के मद्देनज़र यह सवाल खड़ा होता है कि क्या सचमुच लोकतंत्र को कोई ख़तरा है या ये इसके स्वस्थ और जीते-जागते होने के प्रमाण हैं?

Posted By: Satyendra Kumar Singh