चलिए चलें देश में दशहरे की रौनक का जायजा लेने और जाने किस तरह इस उत्‍सव के उत्‍साह में पूरे देश का कोना कोना रंग जाता है। इस उत्‍सव का शुभारंभ नवरात्र के आरंभ के साथ हो जाता है। इसके बाद कहीं दुर्गा पूजा कहीं गरबा खेल कर तो कहीं रामलीला के मंचन साथ ये उत्‍सव मनाया जाता है। चलिए कुछ खास दशहरा उत्‍सवों का आनंद लेने।

कुल्लू का मशहूर दशहरा 
कुल्लू का दशहरा दुनियाभर में मशहूर है। यहां ये उत्सव ठीक दशहरे के दिन शुरू होता है और अगले सात दिनों तक मनाया जाता है। खास बात ये है कि सारी दुनिया में मनायी जाने वाली परंपरा रावण के पुतले दहन कुल्लू के दशहरे में नहीं होता है। कुल्लू में यह उत्सव भारतीय संस्कृति का प्रदर्शन करने वाले जुलूस को निकालकर मनाया जाता है। इस जुलूस में श्रद्धालु विभिन्न देवी की देवताओं मूर्तियों को, भगवान रघुनाथ से मिलाने के लिए, अपने सिर पर रखकर ढालपुर ले जाते हैं। आखिरी दिन यह जुलूस व्यास नदी पर पहुंचता है और उसके तट पर लकड़ियों एक ढेर को लंका के प्रतीक के रूप में जला दिया जाता है।

मैसूर का जगमगाता दशहरा 
इससे अलग मैसूर शहर में दशहरे का उत्सव मूर्ति पूजा और भजन गा कर मनाया जाता है। यहां पर ये त्यौहार “नदहब्बा” के नाम से जाना जाता है, और ऐसा कहा जाता है कि यहां पर ये त्यौहार चार सौ साल पुराने रीति-रिवाजो के साथ मनाया जाता है। मैसूर शहर में दशहरे का आयोजन, महिषासुर पर चामुंडेश्वरी देवी की जीत के रूप में मनाया जाता है। इस उत्सव का आयोजन दस दिनों तक होता है। इस मौके पर लगभग 100,000 बल्बों से मैसूर पैलेस यानि अम्बा विलास महल को सजाया जाता है। इस अवसर पर विभिन्न सांसकृतिक कार्यक्रम भी होते है। साल 1880 से यहां एक नयी परंपरा की शुरूआत हुई जब दशहरे का जुलूस निकाला जाने लगा। इस तरह उत्सव के दसवें दिन, पूजी गई देवी की मूर्तियां भव्य जुलूस के साथ सजे हुए हाथियों पर ले जाई जाती हैं। यह हाथी जुलूस, मैसूर पैलेस से होकर दशहरा मैदान तक जाता है।

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वाराणसी में दुर्गा पूजा और रामलीला से सजा दशहरा 
कहते हैं भारत में मोक्ष की नगरी वाराणसी में दुनिया का सबसे पुराना रामलीला प्रदर्शन होता है। देश के दूसरे भागों से अलग वाराणसी में दशहरे का आयोजन कुछ अलग अंदाज में मनाया जाता है। यहां एक ओर 200 वर्षों से दुनिया का सबसे पुराने रामलीला मंचन होता है तो कुछ हिस्से नवरात्र के आखीरी तीन दिनों में दुर्गा पूजा के रंग में रंग जाते हैं। मान्यता है कि बनारस से 15 किमी दूर रामनगर में, सबसे प्रसिद्ध रामलीला मंचन होते हैं।

 

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राम नहीं देवी को समर्पित बस्तर का दशहरा
इस सबसे अलग बस्तर में दशहरा राम की रावण पर विजय के पर्व रूप में नहीं मनाया जाता। यहां ये उत्सव मां दंतेश्वरी को समर्पित हैं। दंतेश्वरी बस्तर के निवासियों की आराध्य देवी हैं। दंतेश्वरी, मां दुर्गा का ही एक रूप हैं। बस्तर में यह पर्व पूरे 75 दिन चलता है जो श्रावण मास की अमावस से शुरू हो कर अश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। उत्सव के प्रथम दिन को काछिन गादि कहते हैं। इस दिन देवी से समारोह शुरू करने की अनुमति ली जाती है। देवी एक कांटों की शैय्या पर विराजमान होती हैं। कहते हैं कि कन्या रूप में ये देवी एक अनुसूचित जाति की है। इससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति उत्सव की अनुमति लेते हैं। बताते हैं कि यह समारोह 15वीं शताब्दी से शुरु हुआ था। इसके बाद जोगी-बिठाई होती है, इसके बाद भीतर रैनी यानि विजयदशमी और बाहर रैनी यानि रथ-यात्रा होती है अंत में मुरिया दरबार होता है। अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व पर उत्सव का अंत हो जाता है।

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गरबा के रंग में रंगा गुजरात का दशहरा
गुजरात में मिट्टी का सजा हुआ रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहा जाता है। गरबा नृत्य ही यहां के दशहरा पर्व की खासियत है। गरबा करने के लिए महिला और पुरूष दोनों नृतक दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में टकराते हुए घूम घूम कर नृत्य करते हैं। इस अवसर पर भक्ति और पारंपरिक लोक-संगीत का समायोजन होता है, हालांकि अब इसमें फिल्म संगीत भी शामिल हो गया है। पूजा और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन रात भर चलता है।

शक्ति की आराधना में डूबा बंगाल का दशहरा
बंगाल में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। नवरात्र में शुरू होने वाला यह बंगालियों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। पूरे बंगाल में पांच दिनों तक ये उत्सव मनाया जाता है। इसके लिए यहां देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों विराजमान करते हैं। देश भर के नामी कलाकार दुर्गा की मूर्ति तैयार करते हैं। इसके साथ अन्य देवी द्वेवताओं की भी कई मूर्तियां बनाई जाती हैं। त्योहार के दौरान दुर्गा पूजा पडालके आस पास छोटे मोटे स्टाल भी लगाये जाते हैं। यहां षष्ठी के दिन दुर्गा देवी का बोधन, आमंत्रण एवं प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन किया जाता है। उसके बाद सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी के दिन प्रातः और सायंकाल दुर्गा की पूजा की जाती है। अष्टमी के दिन महापूजा और कहीं कहीं बली भी दी जाती है। दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। प्रसाद चढ़ाया जाता है और प्रसाद वितरण किया जाता है। पुरुष आपस में आलिंगन करते हैं, जिसे कोलाकुली कहते हैं। स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं, देवी को विदाई देती हैं। इसके साथ ही वे आपस में एक दूसरे के सिंदूर लगाती हैं। इस रीति को सिंदूर खेला कहते हैं। देवी प्रतिमाओं को बड़े-बड़े वाहनों में रख कर विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। विसर्जन की यात्रा भी बड़ी शोभनीय और दर्शनीय होती है।

देशी रंग में होता है इलाहाबाद का दशहरा
इलाहाबाद में दशहरा कतई देशी या कहिए कस्बाई अंदाज में मनाया जाता है। इस अवसर यहां बड़ी झांकियों से सजे हुए जलूस निकलते हैं। इन झांकियों में रामायण से जुड़ी कहानियों और घटनाओं के मंचन, प्रदर्शन होते हैं। साथ ही पुराने जमाने की तर्ज पर ही मेला लगता है जो रात भर चलता है। इस मेले में आपको मिठाइयों के साथ साथ हर फ्लेवर के कई देशी कोल्डड्रिंक मिल जायेंगे। इतना ही नहीं आधी रात को काला चश्मा लगाये युवक और फिल्मी धुन बजाते डीजे पर थिरकते लोग भी दिख जायेंगे। 

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Posted By: Molly Seth