अपने ही देश में हर किलोमीटर में बदल जाता है होली खेलने का तरीका
सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री आनन्दपुर साहिब मे होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है। सिखों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ पर होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है। इसीलिए दशम गुरू गोविंद सिंह जी ने होली के लिए पुल्लिंग शब्द होला मोहल्ला का प्रयोग किया।
बिहार में वसंत पंचमी के बाद ही पूर्वांचल के जनपदों में होली के गीत गाए जाने लगते हैं और ये सिलसिला होली तक बरकरार रहता है। होली वाले दिन फगु पूर्णिमा होती है लेकिन अंग प्रदेश में इसे फगुआ कहते हैं। फगुआ मतलब फागुन, होली। इस दिन की परम्परा यह है कि सुबह सुबह धूल-कीचड़ से होली खेलकर, दोपहर में नहाकर रंग खेला जाता है, फिर शाम को अबीर लगाकर हर दरवाजे पर घूमके फगुआ गाया जाय। फगुआ का विशेष पकवान पिड़की (गुझिया) हर घर में बनता है।
तमिलनाडु में होली का दिन कामदेव को समर्पित होता है। इसके पीछे कहानी है कि तपस्या लीन शिव के मन में उनके लिए तपस्या कर रही पार्वती का प्रेम जगाने के लिए कामदेव तीर चलाया और क्रोधित शिव ने उन्हें भस्म कर दिया पर काम का तीर लगने से पावर्ती से विवाह भी कर निया। बाद में पार्वती के अनुरोध और कामदेव की पत्नी के विलाप से द्रवित शिव ने कामदेव को जीवित कर दिया। तब से यह दिन होली का होता है। आज भी रति के विलाप को लोक संगीत के रुप मे गाया जाता है और चंदन की लकड़ी को अग्निदान किया जाता है ताकि कामदेव को भस्म होने मे पीड़ा ना हो। साथ ही बाद मे कामदेव के जीवित होने की खुशी मे रंगो का त्योहार मनाया जाता है।
Interesting News inextlive from Interesting News Desk