निर्भरता महज भ्रम के सिवा कुछ नहीं
हमारा शरीर पूरी सृष्टि पर निर्भर है। समाज में, किसी को कपड़े बुनना है, किसी को बिजली का उत्पादन करना है, किसी को जमीन से तेल निकालना है। शरीर को संसार से स्वतंत्र नहीं किया जा सकता है। शरीर के स्तर पर निर्भरता एक परम सत्य है। ज्यादातर लोग अपनी सीमितताओं और निर्भरता के प्रति सजग नहीं हैं। जब आत्मा शरीर के साथ अपनी पहचान बना लेती है, तब उसको यह खटकता है और आजादी की इच्छा उत्पन्न होती है। मन, बुद्धि, अहंकार- वे सभी आजादी की तलाश में हैं। आजादी की तलाश में अक्सर आप अहंकार के स्तर में फंस जाते हैं और अधिक दुखी हो जाते हैं। स्वतंत्रता तब तक हासिल नहीं की जा सकती, जब तक आप अपने भीतर जाने की यात्रा शुरू नहीं करते। जब आप भीतर जाते हैं, तो आप पाते हैं कि आप परस्पर निर्भर हैं।
व्यक्तिगत स्व/आत्मा/जीव सभी परस्पर निर्भर हैं और हर ज्ञानी पुरुष जानता है कि वास्तव में सब कुछ परस्पर निर्भर है और स्वतंत्रता जैसा कुछ भी नहीं है। एक स्तर पर निर्भरता एक कठोर वास्तविकता है। एक और स्तर पर, यह एक भ्रम है क्योंकि आत्मा के अलावा कुछ और है ही नहीं। जब भी आप अपनापन और एकता महसूस नहीं करते हैं, तब आप स्वतंत्रता चाहते हैं। आत्मा अद्वैत है-तब निर्भरता या स्वतंत्रता का कोई प्रश्न ही नहीं होता है।
स्वतंत्रता मांगने वाला एक भिखारी है- वह जो जानता है कि यह एक भ्रम है वह एक राजा है। जब अपनेपन की भावना अच्छी तरह से स्थापित नहीं होती है, तो एक साधक के जीवन में अस्थिरता की स्थिति होती है। तब अहंकार को अपने छोटेपन में वापस जाने का कुछ बहाना मिलता रहता है। ऐसी स्थिति में अभी तक ज्ञान की गहराइयों में मन पूरी तरह से नहीं भीगा है। चूंकि मन अभी इसका आदी नहीं है, इसलिए मन को अहंकार में वापस लौटने और अकेले रहने व स्वतंत्र और अलग होने के लिए छोटे से छोटा बहाना मिलता रहता है। किसी छोटी सी गलती को अनुपात से बाहर बड़ा कर देता है।सत्संग के प्रति प्रतिबद्ध रहेंहमें इन बदलती हुई प्रवृत्तियों से अवगत रहना चाहिए। कई बार हम प्यार और अपनेपन के वशीभूत होकर स्वतंत्रता का विचार त्याग देते हैं, हमें इससे बचना चाहिए। हमारे भीतर एक संतुलन होना चाहिए और इसका एक ही तरीका है, चाहे जो भी हो जाए सत्संग के प्रति हमेशा प्रतिबद्ध रहें क्योंकि सत्संग से ही मन की शांति की दिशा में हम आगे बढ़ सकते हैं। इसके अलावा हमें आध्यात्म के पथ पर दृढ़ रहने की कोशिश भी करनी चाहिए।
गुरुदेव श्री श्री रवि शंकरजानें चेतना और ध्यान में क्या होता है अंतर?परिपक्वता को प्राप्त करना ही दिव्यता है