उत्तराखंड के गठन के समय पहाड़ के लोगों की भावनाएं और अपेक्षाएं क्या और कैसी रही होंगी लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की निम्न पंक्तियों से ये बख़ूबी झलकता है.


“मुक्क अस्मानकु द्यख्णू छोडाबिराणा पिछाडि भगणू छोडाउत्तराखंड अब सांस चा तुमारोसांस हैका मा मग्णू छोडा...”एक आम पहाड़ी की नज़र से देखा जाए तो ये एक प्रार्थना थी. आज जब उत्तराखंड को बने 14 साल हो गए हैं तो हर किसी के मन में एक ही सवाल है कि, ‘पहाड़ की तक़दीर कितनी बदली.’ लोग यहां तक सोच रहे हैं कि उत्तराखंड का गठन पहाड़ के लिए अच्छा हुआ या बुरा.ये सही है कि पहाड़ की अपनी सरकार है, मुख्यमंत्री है, राजधानी है, लंबा चौड़ा अधिकारी और कर्मचारी तंत्र है, सत्ता के गलियारों में गढ़वाली और कुमाऊंनी बोली सुनाई दे जाती है, लेकिन इस सब में एक आम आदमी के लिए क्या है, ये एक कठिन सवाल है.


उत्तराखंड के मूल निवासी, कवि और पत्रकार मंगलेश डबराल कहते हैं, “उत्तराखंड के एक अलग राज्य बन जाने से पहली दुर्घटना ये हुई है कि वो ‘पर्वतीय राज्य’ नहीं रह गया है. जनसंख्या आधारित नए परिसीमन ने पहाड़ी क्षेत्र की अस्मिता पूरी तरह ही नष्ट कर दी है.”'पहले जैसी स्थिति'

अपनी बात को स्पष्ट करते हुए डबराल कहते हैं, “पहाड़ी इलाकों से उत्तराखंड के तराई क्षेत्र या उधमसिंह नगर और हरिद्वार जैसे दो अनचाहे मैदानी ज़िलों में जो पलायन हुआ है, उसने एक तरफ़ तो गांवों को जनसंख्याविहीन किया है, वहीं दूसरी तरफ इन जगहों का जनसंख्या घनत्व बढ़ाया है.”इतना ज़रूर है कि इन 13 वर्षों में उत्तराखंड में आठ-आठ बार मुख्यमंत्री बदले गए हैं और अनगिनत लुभावने नारे आ गए हैं, जैसेः देवभूमि, पर्यटन प्रदेश, हर्बल प्रदेश, जैविक प्रदेश, ऊर्जा प्रदेश आदि-आदि. लेकिन ये नारे सिर्फ छलावा साबित हुए. इनके पीछे ठोस समझ, सुचिंतित योजना और अमल में लाने की इच्छाशक्ति नहीं बनी है.पहाड़ को अपना राज्य इसलिए भी चाहिए था कि लोग कहते थे कि लखनऊ दूर है.अलग राज्य की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए उत्तराखंड के जनकवि और अलग राज्य निर्माण आंदोलन में सक्रिय रहे संस्कृतिकर्मी अतुल शर्मा कहते हैं, “अलग राज्य इसलिए ज़रूरी था, क्योंकि गोरखपुर की और गोपेश्वर की एक ही नीति नहीं बन सकती है. इसलिए राज्य अलग बनता है और उसकी व्यवस्था उसी के अनुसार से होती है तो वो सही हो पाएगा वरना नहीं हो पाएगा.”

लेकिन देहरादून और दूर हो गया है. पहाड़ का आदमी जब कोई काम लेकर लखनऊ जाता था तो उससे सहानुभूति होती थी. वहीं देहरादून में आकर सुदूर पिथौरागढ़ या चंपावत से आया पहाड़ी घिस-घिस कर रह जाता है लेकिन उसका काम नहीं होता.योजना आयोग ने साल 2032 तक उत्तराखंड से 132,000 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा है. राज्य के गठन के समय प्रदेश की बिजली खपत 90 लाख यूनिट प्रति दिन थी जो 10 सालों में 280 लाख यूनिट तक पहुंच गई.'औपनिवेशिक लूटखसोट का ढांचा'जहां तक ज़मीन का सवाल है तो यह देश का ऐसा अकेला क्षेत्र है जहां लगभग 90 प्रतिशत ज़मीन सरकार की और सात से 10 प्रतिशत निजी है. इस 10 प्रतिशत में भी ज़मीन की जोतें इतनी छोटी और बिखरी हैं कि उन पर खेती घाटे का सौदा ही है.भारतीय फौज का 20 प्रतिशत आज भी दो प्रतिशत जनसंख्या वाले पहाड़ी इलाके से आता है. पहाड़ के लोगों के लिए विस्थापन विकल्प नहीं बल्कि जीवित बने रहने की शर्त है.उत्तराखंड की मूल निवासी और अमरीका में कार्यरत वनस्पति विज्ञानी और कवि सुषमा नैथानी कहती हैं, “उत्तराखंड में सरकार, चाहे किसी भी राजनैतिक दल की बने, उसकी नीतियां औपनिवेशिक लूटखसोट के ढांचे पर ही अब तक टिकी हैं."वह कहती हैं, "उत्तराखंड की हालिया तेरह वर्षों की विकास नीतियां सबके सामने हैं, जिनके केंद्र में हिमालय के जीव, वनस्पति और प्रकृति का संरक्षण कोई मुद्दा नहीं. हिमालयी जन के लिए मूलभूत शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार भी मुद्दा नहीं. वे पूरे उत्तराखंड को पर्यटन केंद्र, ऐशगाह और सफ़ारी में बदल रहे हैं.”तो क्या उत्तराखंड का निर्माण एक सार्थक आंदोलन की निराशाजनक परिणति था? क्या राज्य जनता की क्षेत्रीय आकांक्षा का संवाहक नहीं, सत्ता राजनीति के हितों का पोषक बन जाता है? रह-रहकर उत्तराखंड में ये चुभते हुए सवाल उठने ही लगे हैं.


ब्यूरोक्रेसीअगर हम आकंड़े देखेंगे तो सरकारें अपनी पीठ थपथपाने के कई तथ्य जुटा ही लेंगी और नोबल पुरस्कार तक के दावे होते दिखेंगे, लेकिन सच्चाई से मुंह कैसे मोड़ा जा सकता है?पुष्पेश त्रिपाठी के मुताबिक, “ये सरकारें चाहे जिसकी रही हों, भाजपा और कांग्रेस दोनों का रवैया एक ही है. इन्होंने दरअसल उत्तराखंड को राज्य समझा ही नहीं. इनके लिए राज्य एकाध चुनिंदा जगहें हैं. उसमें यही स्थितियां बनेंगी. जब तक गंभीरता से नहीं लिया जाएगा. इसलिए हमने कहा है कि पर्वतीय राज्य की राजधानी गैरसैंण बने जो पर्वतीय राज्य का केंद्रबिंदु है.”वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक जयसिंह रावत कहते हैं, “राज्य के गठन के समय मात्र हजार करोड़ का योजना आकार था जो कि अब छह हज़ार करोड़ से भी ऊपर चला गया. इस दौरान कई सड़कें, स्कूल, पुल और बिजली तथा पेयजल की लाइनें बनीं हैं. राज्य की विकास दर भी बढ़ी ही है."वे कहते हैं, "लेकिन सच्चाई यह भी है कि नए राज्य बनने का जितना लुत्फ़ राजनीतिक और नौकरशाही की विभिन्न बिरादरियों ने उठाया है, उतना लाभ आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया.”
ध्यान देने वाली बात है कि पहले उत्तराखण्ड में एमएलए और एमएलसी को मिला कर कुल 30 जनप्रतिनिधि होते थे और अब 70 हो गए हैं. सभा सचिव जैसे संविधानेतर पद निकाले गए हैं.विधायकों के भत्ते ख़ूब बढ़े"उत्तराखंड में सरकार चाहे किसी भी राजनैतिक दल की बने, उसकी नीतियां औपनिवेशिक लूटखसोट के ढांचे पर ही अब तक टिकी हैं."-सुषमा नैथानी, वनस्पति विज्ञानी और कविउत्तराखंड में विधायकों के वेतन भत्ते ख़ूब बढ़ गए हैं. यही नहीं जो विधायक निधि कभी 75 लाख थी, वो तीन करोड़ हो गई और अब संभवतः पांच करोड़ तक होने जा रही है.जयसिंह रावत कहते हैं, “सरकार जब लखनऊ से देहरादून पहुंची तो अपने साथ वह औपनिशिक सोच भी ले आई. यहां आज भी पंचायती राज जैसे लगभग 300 क़ानून उत्तर प्रदेश के चल रहे हैं. यही नहीं कार्य संस्कृति के सारे दोष विरासत में उत्तराखंड आ गए हैं.”उत्तराखंड में 40 हज़ार से ज़्यादा एनजीओ हैं.राज्य में 98 जल विद्युत परियोजनाएं चालू हैं और 111 निर्माणाधीन हैं. वर्तमान कार्यरत परियोजनाओं की कुल स्थापना क्षमता 3600 मेगावाट है. 21,213 मेगावाट क्षमता की 200 परियोजनाएं विचाराधीन हैं. ये उत्तराखंड जलविद्युत निगम के आंकड़े हैं. Posted By: Abhishek Kumar Tiwari