कुछ लोग हमेशा लेट क्यों रहते हैं?
मुझे मालूम है कि मैं अकेला ऐसा नहीं हूँ। हम सभी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं: बच्चों का ध्यान रखनेवाले हमेशा लेट आते हैं, आपका कोई सहयोगी जो हर बार तयशुदा वक़्त पर काम ख़त्म नहीं कर पाता, भले ही कुछ घंटों की देरी करे, लंच पर पहुंचने के लिए किसी दोस्त को समय से 30 मिनट पहले आने के लिए आपको कहना पड़ता है।
कुछ ऐसी आदतें होती हैं जिससे आप एकदम ग़ुस्सा जाएंगे ठीक वैसे ही जब आपको कोई इंतज़ार करवाता है। लेकिन जब आपको कोई इंतज़ार करवा रहा है भले ही उस समय आपके दिमाग़ में कुछ भी चल रहा हो लेकिन ज़रूरी नहीं ऐसा है कि आपके दोस्त और सहयोगी स्वार्थी हों। देर करनेवालों के मनोविज्ञान को अगर आप देखें तो आपको एक ऐसे दिमाग की झलक दिखेगी जो ठीक से काम नहीं कर रहा हो। लेकिन वहां भी दुरुस्त करने के लिए कई चीज़ें होती हैं।
कुछ बहाने, ख़ासतौर से बहुत देर हो जाने पर, दुनियाभर में मान लिए जाते हैं - जैसे दुर्घटना या तबीयत ख़राब होना। लेकिन दूसरे बहानों को मान लेना इतना आसान नहीं होता। लेट करनेवाले कुछ लोग समय के पाबंद होने की बजाए इसे बड़ी सोच और बड़े मुद्दों के लक्षण बताकर टाल देते हैं। वे अपनी लच्छेदार प्यारी बातों या बहुत दबाव में बेहतरीन काम करने की बात कहकर या फिर सुबह-सवेरे उठने की बजाए उल्लू की तरह देर रात तक जागने की आदत कहकर देर से आने की बात से पल्ला झाड़ देते हैं।
लंदन में एक शिक्षिका जोआना कहती हैं कि देर से आने की उनकी छवि कई बार सोच में फ़र्क़ के कारण भी बन जाती है। वे बताती हैं, "कोई दोस्त आने के लिए कहता है और वो बोलता है कि सात के 'बाद कभी भी आ जाओ'। लेकिन अगर मैं आठ या उसके बाद जाती हूँ तो वे नाराज़ हो जाता है।"हमेशा लेट रहना हो सकता है आपकी ग़लती न हो। हो सकता है कि आप वैसे ही हों। विशेषज्ञों का कहना है कि समय की पाबंदी की समझ से महरूम लोगों के व्यक्तित्व के गुण अक्सर एक जैसे होते हैं, जैसे आशावाद, संयम और व्यग्रता की कमी होना या रोमांच की चाह होना। व्यक्तित्व में अंतर ये भी बता सकता है कि हम समय के गुज़रने का किस तरह से अनुभव करते हैं।साल 2001 में सैन डियेगो विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर जेफ़ कोंट ने एक अध्ययन किया जिसमें उन्होंने प्रतिभागियों को दो हिस्से में बांटा- टाइप ए (महत्वाकांक्षी, प्रतिस्पर्धी) और टाइप बी (रचनात्मक, चिंतनशील, खोजी)। उन्होंने उनसे बिना घड़ी के यह बताने को कहा कि एक मिनट बीतने में कितना समय लगता है। टाइए ए के लोगों को जब लगभग 58 सेकेंड बीत चुके थे तब लगा कि एक मिनट ख़त्म हो गया है। टाइप बी के प्रतिभागियों को 77 सेकेंड के बाद लगा कि एक मिनट का समय बीत चुका है।
न्यूयॉर्क में मनोचिकित्सक और 'हाउ टू बीट प्रोक्रैस्टिनेशन इन द डिजीटल एज' किताब की लेखिका डॉ। लिंडा सैपाडिन कहती हैं- लगातार लेट होना "आसक्त होकर सोचने की समस्या" से पैदा होता है।
वे कहती हैं कि टालमटोल करनेवाले जिस काम या समय सीमा से लेट हो रहे होते हैं उससे जुड़े डर पर सारा ध्यान लगा देते हैं। बजाए इसके कि उस डर से कैसे निकला जाए। वो डर ही उनका बहाना बन जाता है, जो आमतौर पर 'लेकिन' जैसे वाक्यों से बयां होता है। उदाहरण के लिए, वे समझाती हैं कि आप खुद से कह सकते हैं, "मैं फलां कार्यक्रम पर समय से पहुंचना चाहता था, लेकिन मैं तय नहीं कर पाया कि मुझे क्या पहनना चाहिए; मैंने एक लेख लिखना शुरू किया, लेकिन मुझे डर था कि शायद यह मेरे साथियों को बहुत पसंद नहीं आए।" लेट लतीफ़ी से छुटकारा नहींसैपाडिन कहती हैं, "लेकिन के बाद जो कुछ भी आता है उसका एक मतलब होता है। वे लोगों से कहती हैं कि 'लेकिन' शब्द को 'और' से बदल डालो। वे समझाती हैं, 'लेकिन' शब्द विरोध और रूकावट को दर्शाता है; 'और' शब्द जुड़ाव और समाधान को दर्शाता है। जिससे काम कम चुनौतीपूर्ण हो जाता है और रूकावटों का डर कम हो जाता है।डीलोंज़र ने समय की पाबंद बनने के रास्ते में सबसे पहले उस चीज़ को खोजना और समझना शुरू किया जिसकी वजह से उन्हें लगता था कि वे लेट हो जाती हैं। वे कहती हैं कि ऐसा तब हो पाया जब वे समय से पहुंचने की बार-बार कोशिश करने पर भी विफल हो जा रही थीं। फिर इसके बाद उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें हड़बड़ी के रोमांच में बहुत मज़ा आता था। जिस चीज़ में उन्हें मज़ा आता था उसे बदलकर ही वे सुधर सकती थीं।