फिल्म का एक संवाद है जो कि निदा फाजली का लिखा हुआ हैहर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी जिस को भी देखना हो कई बार देखना। निर्देशक रूमी जाफरी ने इसी सोच के साथ शायद कागज पर यह फिल्म लिखी होगी। लेकिन जब वह फिल्म परदे पर आती है तो इस कदर बिखर जाती है कि लगता है इसे एक बार भी न देखी जाए। कानून के न्याय को लेकर एक ऐसा कोर्टरूम रचा है जिसको रूप दिया गया है एक खेल का। लेकिन ये खेल इतना थकाऊ है और पकाऊ है कि बोर हुए बगैर आप नहीं रह पाएंगे। थ्रिलर के नाम पर ठगी की गई है। पढ़ें पूरा रिव्यु

फिल्म : चेहरे
कलाकार : अमिताभ बच्चन, इमरान हाशमी, अनु कपूर, रघुवीर यादव, धृतमान चटर्जी, रिया चक्रवर्ती , क्रिस्टल डिसूजा
निर्देशक : रूमी जाफरी
रेटिंग : दो

क्या है कहानी
एक आदमी है समीर( इमरान हाश्मी ) बर्फीली वादियों में वह फंस गया है, अचानक उसकी मुलाकात परमजीत सिंह भुल्लर( अनु कपूर) से होती है, वह उसे एक घर में लेकर जाता है, जहाँ उसके और भी तीन दोस्त और एक लड़की है। रिटायर्ड जज जगदीश आचार्य (धृतिमान चटर्जी) , जल्लाद हरिया (रघुवीर) ऐना ( रिया) और एक द्वारपाल ( सिद्धांत कपूर). लेकिन इन सबमें सबसे अहम भूमिका में हैं, लतीफ़ जैदी (अमिताभ बच्चन). अचानक से एक कोर्ट रूम ड्रामा शुरू हो जाता है, जबरन समीर को उस खेल को खेलने पर मजबूर किया जाता है। कुछ बैकग्राउंड पता नहीं है कि आखिर ये तीनों ऐसा क्यों कर रहे हैं। इनका मानना है कि कोर्ट में फैसला होता है, ये लोग न्याय देने के काम करते हैं। समीर उस मझदार में फंसता जाता है और काफी हकीकत सामने आती है। उसकी एक गर्ल फ्रेंड नताशा (क्रिस्टल ) से जुड़े राज सामने आते हैं।
एक अजीबोगरीब फिल्म बनी है, जिसमें कोई लॉजिक नहीं है।

क्या है अच्छा
फिल्म का कॉन्सेप्ट शायद पन्ने पर अच्छा लगा हो, बिल्ड अप भी निर्देशक ने अच्छा किया है।

क्या है बुरा
कहानी किस ओर जाती है, पता नहीं चलता। पूरी तरह भटकाव है। अमिताभ बच्चन ने जो 14 मिनट का मोनोलॉग किया है, वह भी बेबुनियाद है, कहानी की कोई बैक स्टोरी नहीं। कोई क्या किये जा रहा समझ नहीं आ रहा। टॉर्चर जैसी है फिल्म। हद से अधिक डायलॉग है और वे भी उबाऊ लगते हैं। थ्रिलर के नाम पर पूरी तरह ठग्गी है।

अदाकारी
अमिताभ बच्चन ने फिल्म को हाँ क्यों कहा पता नहीं, लेकिन बाद में वह फिल्म देख कर निराश ही होंगे अपने अभिनय को देख कर, इमरान हाशमी ने अच्छा काम किया है। अमिताभ के सामने वह खूब जंचे हैं। अनु कपूर और रघुवीर यादव ने पुराने ढर्रे वाला अभिनय किया है। रिया सिर्फ नाम की हैं फिल्म में। क्रिस्टल डिसूजा का अच्छा मौका मिला है, लेकिन उन्होंने मौका बर्बाद किया है। सिद्धांत के लिए कुछ करने को था ही नहीं।

वर्डिक्ट
थ्रिलर के नाम पर अगर आप यह फिल्म देखने का मन बना रहे हैं तो खुद को रोक लें, निराशा होगी। अमिताभ के फैंस भी निराश ही होंगे।
Review by: अनु वर्मा

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari