क्या इंडियन टीम डिफेंड कर पायेगी वर्ल्डकप? जानें क्या कहता है विश्लेषण
जो चैम्पियन हुए थे वो लोग और थे
2011 की विश्व कप विजेता टीम के सिर्फ 4 खिलाड़ी 2015 के विश्व कप की टीम में हैं. यानी चैम्पियन टीम इंडिया के 11 खिलाड़ी उस टीम में नहीं हैं जो खिताब की रक्षा करने जा रही है. अगर हम इसकी तुलना उन टीमों से करें जो खिताब की रक्षा कर पाने में कामयाब रहीं हैं तो देखेंगे कि वेस्टइंडीज की 1979 की टीम में 8 खिलाड़ी ऐसे थे जो 1975 की टीम में नहीं थे. ऑस्ट्रेलिया की 2003 की टीम में 10 और 2007 की टीम में 7 खिलाड़ी ऐसे थे जो पिछले विश्व कप की टीम में नहीं थे. स्पष्ट है कि टीम इंडिया का परिवर्तन का आंकड़ा सबसे ज्यादा है. अगर इस परिवर्तन को इस नजर से देखें कि इस साल गैरहाजिर खिलाडिय़ों में महान खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर , तूफानी वीरेन्द्र सहवाग और पिछले विश्व कप के मैन ऑफ द सीरीज युवराज सिंह भी शामिल हैं तो गंभीरता ज्यादा स्पष्ट होती है. नया खिलाड़ी आने में कोई बुराई नहीं लेकिन महान खिलाड़ी का रिप्लेसमेंट अगर सामान्य खिलाड़ी है तो टीम कमजोर हो जाती है. खराब फॉर्म या उम्र की वजह से खिलाड़ी बाहर हो सकता है लेकिन जब हम दो समय की टीमों का तुलनात्मक आकलन करते हैं तो ये देखते हैं कि जब बाहर हुआ खिलाड़ी टीम में था तब कैसा खेलता था उस खलाड़ी की तुलना में जो उसकी जगह टीम में हैं. जब हम 2011 और 2015 की टीमों की तुलना करेंगे तो नए खिलाड़ी की तुलना 2011 के सहवाग, युवराज से होगी 2015 के सहवाग, युवराज से नहीं.
चैम्पियन टीम की तुलना में डिफेंडिंग चैम्पियन टीम अनुभवहीन
2011 की टीम इंडिया का प्रति खिलाड़ी वन डे मैच खेलने का औसत 138.93 था जबकि 2015 की टीम इंडिया में औसत के हिसाब से हर खिलाड़ी ने 85.66 मैच खेले हैं. दोनों टीमों के बीच अनुभव का अंतर काफी ज्यादा ज्यादा है. अब जरा खिताब की रक्षा करने में सफल रही टीमों पर नजर डालते हैं. 1995 की टीम में हर खिलाड़ी ने औसतन 47.41 मैच खेले थे जबकि1979 की टीम का औसत 88.42 था. यानि चाल साल बाद वन डे मामले में ज्यादा अनुभवी वेस्टइंडीज टीम मैदान में उतरी थी. कोई ये कह सकता है कि 1975 के बाद ही वन डे मैच ज्यादा बढ़े उस टीम पर नजर डालें जब मैचों की संख्या कोई मुद्दा नहीं थी. 2003 की ऑस्ट्रेलियाई टीम का प्रति खिलाड़ी मैच का अनुभव औसत 82.58 था जबकि 2007 की कंगारू टीम में ये औसत बढ़कर 100.4 हो गया था. इससे साफ है कि वो ही टीम खिताब की रक्षा पाई है जो पिछली टीम से ज्यादा अनुभवी रही हैं मैच खेलने के हिसाब से. 2015 की टीम इंडिया के साथ इसके उलट है.
हालात पूरी तरह जुदा
ये बात भी अहम है कि 1975 और 1979 के दोनों विश्व कप इंग्लैंड में हुए थे. यानि वेस्टइंडीज के लिए पिच और मौसम फैक्टर सेम था. 1999 का विश्व कप इंग्लैंड में हुआ था. ऑस्ट्रेलिया ने 2003 का विश्व कप दक्षिण अफ्रीका में जबकि 2007 का वेस्टइंडीज में जीता. इन तीनो देशों की पिच और मौसम ऑस्ट्रेलिया को सूट करते हैं. भारत ने 2011 का विश्व कप घरेलू मैदान में जीता और उसे खिताब की रक्षा करनी पड़ रही है ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में जहां खेलने में टीम इंडिया को सबसे ज्यादा परेशानी होती है.
हर विभाग में हुए कमजोर
सलामी बल्लेबाजी
2011 की टीम की सलामी जोड़ी के विकल्प सचिन तेंदुलकर, वीरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर थे. 2015 की टीम की सलामी जोडी़ के विकल्प शिखर धवन, अजिक्य रहाणे और रोहित शर्मा हैं. इन तीनों को ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड की पिचों का बहुत कम अनुभव है जबकि सचिन, सहवाग और गंभीर न सिर्फ अनुभवी थे बल्कि घरेलू पिच पर खेल रहे थे.
मध्यक्रम अब भी बुरा नहीं पर युवी की कमी खलेगी
2011 की टीम में मध्यक्रम में युवराज, रैना, कोहली और धोनी थे. इसमें से युवराज को छोड़कर बाकी तीन अब भी टीम में हैं. युवराज की जगह अंबाती रायडू को मान लें तो इतनी कमजोरी तो आई है.
रिजल्ट... बल्लेबाजी की कसक... युवराज सिंह
ऑलराउंडर कमोबेश एक जैसे
2011 की टीम के यूसुफ पठान की जगह अब रवीन्द्र जडेजा हैं जो कमोबेश बराबर क्षमता के खिलाड़ी हैं. स्टुअर्ट बिन्नी इस बार अतिरिक्त ऑलराउंडर हैं क्योंकि पीयूष चावला टीम में नहीं हैं. लोअर आर्डर की बल्लेबाजी में हरभजन उपयोगी बल्लेबाज थे 2011 की टीम में पर अब नहीं हैं...
गेंदबाजी
2011 की टीम में तेज गेंदबाज के तौर पर जहीर खान, आशीष नेहरा, श्रीसंत और मुनाफ पटेल थे. 2015 की टीम में ये काम भुवनेश्वर कुमार, मो शामी, ईशांत शर्मा और उमेश यादव के जिम्मे है. इसमें से जहीर खान के अनुभव की भरपाई नए गेंदबाजों के बस की बात नहीं हैं. 2015 के बाकी तेज गेंदबाज 2011 के गेंदबाजों से कमजोर नहीं हैं.
रिजल्ट... फास्ट बॉलिंग की कसक... जहीर खान
स्पिन गेंदबाजी...
स्पिन विभाग 2011 की तुलना में कमजोर है लेकिन चूंकि मैच ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड में हो रहा है इसलिए 2011 की तुलना में स्पिनर्स की भूमिका कम होगी. फिर भी हरभजन सिंह के स्तर के गेंदबाज की कमी खलेगी... पीयूष चावला की जगह स्टुअर्ट बिन्नी बल्लेबाजी में मजबूती पर गेंदबाजी में कमजोरी आने को दिखाते हैं.
अब वो मोटीवेशन नहीं
2011 की टीम के पास एक बहुत बड़ा मोटीवेशन ये था कि टीम जानती थी कि वो टीम के प्रिय गुरु और आदर्श सचिन तेंदुलकर का आखिरी विश्व कप था. टीम ये भी जानती थी कि विश्व कप जीतना सचिन का सबसे बड़ा सपना है. ऐसे में टीम के पास विश्व कप जीतने की एक्सट्रा वजह थी. क्रिकेट एक माइंड गेम है और इसमें एक दूसरे के लिए खेलना भी खेल को बदल देता है. इस बार माहौल कुछ और है. टीम में मोटीवेशन का अभाव दिख रहा है.
सबसे बड़ा फैक्टर..पिच और ग्र्राउंड
टीम इंडिया की सबसे बड़ी समस्या ये है कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की पिचों का व्यवहार भारतीय पिचों से बिलकुल जुदा है और टीम के ज्यादातर खिलाड़ी भारतीय पिचों के शेर हैं. ऑस्ट्रेलिया के बड़े मैदानों पर फिटनेस और फील्डिंग स्किल का टेस्ट होगा जबकि फिटनेस हमेशा से टीम इंडिया का कमजोर पहलू रही है. चौकों और छक्कों का गेम खेलने के माहिर भारतीय बल्लेबाजों को रनिंग बिटविन विकेट का गेम खेलना पड़ेगा. जिन पिचों पर गेंद स्विंग ज्यादा होती हैं वहां बल्लेबाजी की टेकनीक अहम हो जाती है. एक दो खिलाड़ी ही ऐसे होते हैं जो अपने टैलेंट के बल पर हर परिस्थिति में बराबर अच्छा खेल लेते हैं. इस टीम के पास विराट कोहली ऐसे ही खिलाड़ी हैं. 1992 में सचिन तेंदुलकर ऐसे ही खिलाड़ी के तौर पर ऑस्ट्रेलिया गए थे. पर टीम सिर्फ सचिन या विराट जैसे एक्ट्रा ऑर्डिनरी क्षमता वाले खिलाडिय़ों से नहीं बनती. सामान्य खिलाड़ी को ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसा जगह पर खेलने के लिए अनुभव की जरूरत पड़ती है. और अनुभव के मामले में 2015 की टीम इंडिया कमजोर है.
उम्मीद पर इंडिया कायम है.
ईमानदारी से कहें तो भारतीय टीम की उम्मीदें क्रिकेट बाई चांस पर ज्यादा टिकी हैं. भारतीय उम्मीद इसलिए कायम है क्योंकि इस खेल में हर बार मजबूत टीम ही नहीं जीतती. अगर टीम की मजबूती के आधार पर विश्व कप चैम्पियन का फैसला होता तो दक्षिण अफ्रीका अब तक तीन बार विश्व कप जीत चुका होता. न तो 1983 की भारतीय टीम और न ही 1992 की पाकिस्तान टीम विश्व कप की मजबूत टीमें थीं फिर भी उन्होंने विश्व कप जीता. विश्व कप जीतने के लिए जज्बा, कुछ एक्स फैक्टर और काफी किस्मत भी चाहिए होती है और ये बातें कम मजबूत टीम को भी विश्व कप जिता सकती हैं. इसलिए क्रिकेट में कोई भविष्यवाणी नहीं की जाती.
तीन मैच ही तो जीतना है
भारत के ग्रुप में भारत, पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, वेस्टइंडीज, जिम्बाब्वे और आयरलैंड हैं. इन 6 टीमों में से 4 क्वार्टर फाइनल में पहुंच जाएंगी. भारत बुरी से बुरी हालत में भी जिम्बाब्वे और आयरलैंड से तो बेहतर खेलेगा ही. वैसे वेस्टइंजीज पर भी बहुत भारी है टीम इंडिया. यानि क्वार्टर फाइनल तो पक्का ही समझिए. क्वार्टर फाइनल में पहुंचने के बाद लगातार सिर्फ तीन मैच जीत कर कोई भी टीम चैम्पियन बन सकती है. क्रिकेट में किसी खास दिन कोई भी जीत सकता है. अगर 1996 में केन्या हरा सकती है वेस्टइंडीज को, 2007 में आयरलैंड हरा सकता है पाकिस्तान को और उसी दिन बांग्लादेश हरा सकता है भारत को तो फिर हम ये नहीं कह सकते कि कौन किसको नहीं हरा सकता. यानि तीन दिन... तीन दिन हैं टीम इंडिया के पास... और ये तीन दिन उसके खुदा (सचिन तेंदुलकर) के साथ न होने पर भी उससे कोई नहीं छीन सकता... भारत के चैम्पियन बनने की उम्मीदें उसके टीम कम्पोजीशन और मजबूती में नहीं उन तीन दिनों के खेल पर ज्यादा निर्भर हैं...