म्यांमार में लोकतंत्र का चेहरा रहीं ये महिला, अपने देश के खातिर दस से अधिक सालों तक रहीं नजरबंद
पिता की हत्या कर दी गई
कानपुर। म्यांमार में लोकतंत्र का चेहरा कही जाने वाली ऑन्ग सान सू की आज यानी कि 19 जुलाई को अपना जन्मदिन मना रही हैं। बता दें कि ऑन्ग सान सू की का जन्म 19 जून, 1945 को बर्मा के रंगून शहर में हुआ था। उनके पिता ऑन्ग सान को स्वतंत्र बर्मा के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। 'द यूनिवर्सिटी टाइम्स' के मुताबिक, ऑन्ग सान ने बर्मा को ब्रिटिश सरकार के चंगुल से मुक्त कराने में अहम भूमिका निभाई थी। 'सू की' की मां डॉ किन ची अपनी शादी से पहले महिला राजनैतिक ग्रुप की सदस्य थीं। कहा जाता है सू की जब सिर्फ दो साल की थीं तभी उनके पिता की हत्या कर दी गई।
भारत से की स्नातक की पढ़ाई
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित और बर्मा (अब म्यांमार) में लोकतंत्र के लिए सैनिक सरकार का शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने वाली 'ऑन्ग सान सू की' आज भले ही दुनिया के लिए एक मिशाल बन गईं हो, लेकिन उनका जीवन काफी संघर्षों से भरा है। 'अल जजीरा' के मुताबिक, सू की ने अपनी शुरुआती पढ़ाई रंगून (अब यंगून) में पूरी की। इसके बाद उन्होंने आगे स्नातक की पढ़ाई 1964 में भारत की राजधानी नई दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से की। बाद में वो अपनी और आगे की पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी चली गई, जहां से उन्होंने 1967 में दर्शन शास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीति में बीए किया।
गिरफ्तारियों के बावजूद लोकतंत्र के प्रति रहीं अडिग
बता दें कि 1988 में सू की ने अपना राजनैतिक करियर शुरू किया और जनरल सेक्रेटरी के पद पर नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) में शामिल हो गईं। उन्होंने लोकतंत्र के समर्थन में कई भाषण दिए। इसके चलते 20 जुलाई, 1989 को उन्हें रंगून में स्टेट लॉ एंड ऑर्डर रिस्टॉर्टेशन काउंसिल (एसएलओआरसी) द्वारा घर पर ही नजरबंद कर दिया गया। गिरफ्तारी के शुरुआती वर्षों में सू की से किसी को भी मिलने की अनुमति नहीं मिलती थी लेकिन बाद में उनके परिवार वालों को उनसे मिलने की इजाजत दे दी गई।
छोटी-छोटी अवधि की रिहाई के साथ घर पर नजरबंद
जुलाई 1995 में उन्हें रिहा कर तो दिया गया लेकिन तब तक सू की को सेना की देख-रेख में घर पर भी नजरबंद रखा गया। उनकी रिहाई के शुरुआती वर्षों में उन्हें सिर्फ अपने पैतृक शहर तक ही जाने की इजाजत थी। सरकार ने उनके म्यांमार के बाहर जाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। उन्हें 1989 से 2010 तक लगातार छोटी-छोटी अवधि की रिहाई के साथ घर पर नजरबंद रखा गया। लेकिन इन गिरफ्तारियों के बावजूद भी लोकतंत्र के प्रति उनका समर्थन कम नहीं हुआ।
जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित
सू की को गिरफ्तारी और आंदोलन के बीच उनके शांतिपूर्ण विरोध के लिए कई अवॉर्ड मिले। सबसे पहले 1991 में स्वतंत्रता के विचार के लिए सखारोव पुरस्कार और नोबेल शांति पुरस्कार। इसके बाद 1992 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय सिमोन बॉलीवर पुरस्कार से नवाजा गया। 2002 में बिल क्लिंटन ने उन्हें प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम से नवाजा। इसके बाद उन्हें भारत में जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।