बिहार: दिमाग़ी बुखार की मार और सरकार बेज़ार
यहाँ रहुआ राजाराम गांव की अमिता कुमारी अपने आठ महीने के बच्चे का इलाज करा रही हैं. स्वास्थ्य केंद्र के कर्मचारियों के अनुसार बाक़ी कमरों के मुक़ाबले एईएस वार्ड की ख़ासियत यह है कि इसमें एक अतिरिक्त हाई स्पीड फैन लगा है.दृश्य दो- मुज़फ्फ़रपुर शहर स्थित सदर अस्पताल में छह बिस्तरों वाला मस्तिष्क ज्वर वार्ड खाली पड़ा है. एक नर्स हालांकि ड्यूटी पर मौजूद हैं.इलाज के लिए भर्ती होना तो दूर अब तक एईएस पीड़ित किसी बच्चे को लेकर उसके परिजन जांच के लिए भी यहां नहीं आए हैं.ज़िले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर ज्ञान भूषण कहते हैं कि यह चिंता का विषय है कि इलाज की पूरी व्यवस्था के बावजूद एईएस पीड़ित बच्चे यहां इलाज के लिए नहीं आ रहे हैं.ख़ुद डॉक्टर भूषण के अनुसार ऐसा शायद अस्पताल के प्रति विश्वास की कमी के कारण हो रहा है.खाली अस्पताल
इसका ख़ामियाज़ा हर दिन सूबे के लागों को उठाना पड़ रहा है. जन स्वास्थ्य अभियान के बिहार संयोजक और योजना आयोग द्वारा गठित राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के कार्यसमूह के सदस्य रहे डॉक्टर शकील बताते हैं कि हर बीमारी में एक ‘गोल्डन पीरियड’ आता है यानी ऐसा समय जिसके बीच अगर मरीज को जरूरी चिकित्सकीय सहायता मिल जाए तो वह बेहतर इलाज के लिए उचित केंद्र तक पहुंच सकता है.लेकिन डॉक्टर शकील के अनुसार चूंकि पर्याप्त स्वास्थ्य उपकेंद्र नहीं हैं तो ऐसे में साधनयुक्त अस्पतालों तक पहुंचने में लगा वक्त बच्चों के लिए घातक साबित हो रहा है.ऐसा नहीं है कि कमी सिर्फ स्वास्थ्य उपकेंद्रों के मामले में है. सूबे में न तो पर्याप्त संख्या में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं और जो हैं वे भी पूरी तरह आधारभूत ढांचे, सुविधा और मानव संसाधन से लैस नहीं हैं. साथ ही सूबे में लगभग एक हज़ार रेफरल अस्पतालों की ज़रूरत के मुक़ाबले लगभग सौ रेफरल अस्पताल ही हैं.ऐसे में सूबे के श्रीकृष्ण मेमोरियल अस्पताल जैसे चिकित्सा महाविद्यालयों पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है. साथ ही राज्य में ऐसे महाविद्यालय भी गिनती के ही हैं.दूसरी ओर राज्य में कई सालों से स्थाई चिकित्सकों की बहाली नहीं हुई है. हाल के कुछ सालों में अनुबंध पर चिकित्सकों के रखे जाने की शुरुआत हुई है.लेकिन चिंताजनक बात यह है कि सरकार जितने पदों के लिए विज्ञापन निकालती है, उसके मुक़ाबले आधे से भी कम चिकित्सक ही आवेदन देते हैं.जागरूकता अभियान