भारतीय सेना ने जून 1984 में स्वर्ण मंदिर पर ऑपरेशन ब्लूस्टार के तहत कार्रवाई की थी. इस घटना के अब 30 साल पूरे हो चुके हैं लेकिन इस घटना के बाद गायब हुए लोगों के परिजनों को लगता है कि उनके मामलों को भुला दिया गया है.


सतवंत सिंह मानक कहते हैं कि जब वो पंजाब पुलिस में थे तो उन्होंने अपने साथियों को 15 लोगों को मारते देखा था, लेकिन अंतिम मामले ने उनके जमीर को झकझोर दिया और उन्होंने पुलिस की नौकरी छोड़ दी.कुलवंत सिंह कांता नामक किशोर को पंजाब पुलिस ने अप्रैल, 1992 में गिरफ़्तार किया था. उनके पड़ोसी ने कुलवंत पर चरमपंथियों से जुड़े होने का आरोप लगाया था.मानक याद करते हुए बताते हैं, "उन्होंने उसे तीन दिन तक प्रताड़ित किया, फिर उसे नहर पर ले गए और एक और बंदी के साथ उसकी हत्या करके उसकी लाश नहर में फेंक दी."मानक अस्सी के दशक में पंजाब पुलिस में काम करते थे. मानवाधिकार संगठनों के अनुसार यही वो दौर था जब सिख चरमपंथी समूहों द्वारा बड़े स्तर पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के साथ-साथ सुरक्षा बलों द्वारा हज़ारों सिख गायब कर दिये गए.


वो कहते हैं कि वो इस उम्मीद में पुलिस में बने रहे कि पुलिस के रवैए में सुधार आएगा, लेकिन कुलवंत सिंह की हत्या के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और फिर उस हत्या में कथित तौर पर शामिल लोगों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई की.'फ़र्ज़ी मुठभेड़'पंजाब के अलगाववादी आंदोलन में मारे गए सिख

अमृतसर के बाहरी इलाक़े में स्थित एक गाँव संगना के बाशिंदे अभी तक उस वक़्त को नहीं भूले हैं.पहली नज़र में यह आम पंजाबी गाँव जैसा ही लगता है, लेकिन यहाँ के घरों में एक बड़ी कमी खलती है.मृदुभाषी खजान सिंह मार्च, 1989 का वो दिन याद करते हैं जब उनके बड़े भाई सुखदेव लापता हो गए थे.वो बताते हैं, "वो बस से अमृतसर जा रहे थे. पुलिस ने सड़क पर नाका बना रखा था और उन्हें अपने साथ ले गई."खजान कहते हैं कि उनके भाई की बड़ी दाढ़ी थी और वो केसरिया पगड़ी पहनते थे, बस इसीलिए पुलिस ने उन्हें उठा लिया. वो इस बात से इनकार करते हैं कि उनके भाई चरमपंथ से जुड़े हुए थे.कई अन्य परिवारों की तरह ही सुखदेव का परिवार भी आजीविका के लिए पूरी तरह उन्हीं पर निर्भर था, जिसके कारण लापता हुए लोगों के परिवार वाले सालों उनकी कमी महसूस करते रहे.खजान और उनके भाइयों की पढ़ाई-लिखाई बीच में छूट गई. परिवार चलाने के लिए उन्हें नौकरी करनी पड़ी, यहाँ तक कि अपनी ज़मीन भी बेचनी पड़ी. खजान के परिवार में इस वक़्त वो और उनकी माँ ही बचे हैं.

कश्मीर कौर के पति सुरजीत सिंह 1992 में लापता हो गए थे. उन्हें पुलिस घर से ले गई थी.वरिष्ठ पत्रकार जगतार सिंह ने पंजाब में अलगाववाद के उभार पर एक किताब लिखी है. वो कहते हैं कि पंजाब में बहुत से लोग उस घटना को भूल चुके हैं और राज्य के इतिहास के एक अत्यंत दुखद पहलू को वो याद नहीं करना चाहते.पंजाब में अलगाववादी आंदोलन जब से समाप्त हुआ उसके बाद से अधिकतर समय राज्य में अकाली दल की सरकार रही है. अकाली दल ने पहले ऐसे सभी मामलों की न्यायिक जाँच कराने का वादा किया था, लेकिन बाद उसने इसे चुपचाप ठंडे बस्ते में डाल दिया.दबी हुई भावनाएँजगतार सिंह कहते हैं कि कुछ सिखों के मन में 'दबी हुई भावनाएँ' हैं जो यदाकदा सामने आती हैं, जैसे हाल में साल 2012 में क़ैदी बलवंत सिंह राजोआना को फांसी दिए जाने के विरोध में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे.हाल में आम चुनावों में अकाली दल के प्रति लोगों की नाराजगी साफ़ जाहिर हुई. पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी को चुनावों में भारी जीत मिली, लेकिन पंजाब में पार्टी ने अकाली दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और उसका वोट प्रतिशत घट गया.
"हमें न्याय चाहिए. जब मेरे बच्चे छोटे थे तो पूछते थे कि पापा कहाँ हैं. अब मेरे पोते-पोती पूछते हैं कि हमारे दादा जी कहाँ हैं?"-कश्मीर कौर, सुरजीत सिंह की पत्नीनई-नवेली आम आदमी पार्टी पूरे भारत में केवल पंजाब में जीत हासिल कर सकी, उसे यहाँ चार सीटों पर जीत मिली.आम आदमी पार्टी के विजयी प्रत्याशियों में से एक प्रसिद्ध सिख मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. हालांकि पार्टी ने चुनाव में ऐतिहासिक अन्याय के बजाय अकाली दल की वर्तमान सरकार में हुए कथित भ्रष्टाचार, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव, रोज़गार में कमी, राज्य में नशे के बढ़ते चलन को मुद्दा बनाया था.दूसरी तरफ़, संगना गाँव पंजाब की राजनीति से बिल्कुल अछूता नज़र आता है. यहाँ रहने वाली कश्मीर कौर के पति सुरजीत सिंह 1992 से लापता हैं. उन्हें दो पुलिस वाले एक सुबह अपने साथ ले गए थे. उसके बाद वो लौटकर नहीं आए, लेकिन साल 2006 में ग़ैर क़ानूनी तौर पर दफनाए गए लोगों की जो सूची सामने आई उसमें उनका भी नाम था.वे कहती हैं, "हमें न्याय चाहिए. जब मेरे बच्चे छोटे थे तो पूछते थे कि पापा कहाँ हैं. अब मेरे पोते-पोती पूछते हैं कि हमारे दादा जी कहाँ हैं?"
उस दौर में पंजाब में लापता हुए हुए लोगों का मुद्दा अब चर्चा से बाहर होता जा रहा है लेकिन उनके न होने का दर्द मिटने में कुछ पीढ़ियाँ लगें.

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari