प्रेम कहानी एक कवयित्री और चित्रकार की
अमृता और इमरोज़ का सिलसिला धीरे-धीरे ही शुरू हुआ था. अमृता ने एक चित्रकार सेठी से अपनी किताब 'आख़िरी ख़त' का कवर डिज़ाइन करने का अनुरोध किया था. सेठी ने कहा कि वो एक ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो ये काम उनसे बेहतर कर सकता है.सेठी के कहने पर अमृता ने इमरोज़ को अपने पास बुलाया. उस ज़माने में वो उर्दू पत्रिका शमा में काम किया करते थे. इमरोज़ ने उनके कहने पर इस किताब का डिज़ाइन तैयार किया.पढ़िए विस्तार से विवेचनाइमरोज़ याद करते हैं, ''उन्हें डिज़ाइन भी पसंद आ गया और आर्टिस्ट भी. उसके बाद मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हो गया. हम दोनों पास ही रहते थे. मैं साउथ पटेल नगर में और वो वेस्ट पटेल नगर में."
"एक बार मैं यूँ ही उनसे मिलने चला गया. बातों-बातों में मैंने कह दिया कि मैं आज के दिन पैदा हुआ था. गांवों में लोग पैदा तो होते हैं लेकिन उनके जन्मदिन नहीं होते. वो एक मिनट के लिए उठीं, बाहर गईं और फिर आकर वापस बैठ गईं. थोड़ी देर में एक नौकर प्लेट में केक रखकर बाहर चला गया. उन्होंने केक काट कर एक टुकड़ा मुझे दिया और एक ख़ुद लिया. ना उन्होंने हैपी बर्थडे कहा ना ही मैंने केक खाकर शुक्रिया कहा. बस एक-दूसरे को देखते रहे. आँखों से ज़रूर लग रहा था कि हम दोनों खुश हैं.''पिता की चपत
उस समय मैं सो रहा होता था. उनको लिखते समय चाय चाहिए होती थी. वो ख़ुद तो उठकर चाय बनाने जा नहीं सकती थीं. इसलिए मैंने रात के एक बजे उठना शुरू कर दिया. मैं चाय बनाता और चुपचाप उनके आगे रख आता. वो लिखने में इतनी खोई हुई होती थीं कि मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थीं. ये सिलसिला चालीस-पचास सालों तक चला.उमा त्रिलोक इमरोज़ और अमृता दोनों की नज़दीकी दोस्त रही हैं और उन पर उन्होंने एक किताब भी लिखी है- 'अमृता एंड इमरोज़- ए लव स्टोरी.'उमा कहती हैं कि अमृता और इमरोज़ की लव-रिलेशनशिप तो रही है लेकिन इसमें आज़ादी बहुत है. बहुत कम लोगों को पता है कि वो अलग-अलग कमरों में रहते थे एक ही घर में और जब इसका ज़िक्र होता था तो इमरोज़ कहा करते थे कि एक-दूसरे की ख़ुशबू तो आती है. ऐसा जोड़ा मैंने बहुत कम देखा है कि एक दूसरे पर इतनी निर्भरता है लेकिन कोई दावा नहीं है.बुख़ार गायब हुआ
अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी. अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में वो लिखती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे. साहिर के जाने के बाद वो उनकी सिगरेट की बटों को दोबारा पिया करती थीं.इस तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लगी. अमृता साहिर को ताउम्र नहीं भुला पाईं और इमरोज़ को भी इसका अंदाज़ा था. अमृता और इमरोज़ की दोस्त उमा त्रिलोक कहती हैं कि ये कोई अजीब बात नहीं थी. दोनों इस बारे में काफ़ी सहज थे.उमा त्रिलोक बताती हैं, ''वो ये कहती थी कि साहिर एक तरह से आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत! साहिर और अमृता का प्लैटोनिक इश्क था. इमरोज़ ने मुझे एक बात बताई कि जब उनके पास कार नहीं थी वो अक्सर उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे.""अमृता की उंगलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं... चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो. उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया. इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं! लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता है. वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं. मैं भी उन्हें चाहता हूँ.''साथी भी और ड्राइवर भी
अमृता जहाँ भी जाती थीं इमरोज़ को साथ लेकर जाती थीं. यहाँ तक कि जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया तो इमरोज़ हर दिन उनके साथ संसद भवन जाते थे और बाहर बैठकर उन का इंतज़ार किया करते थे.वो उनके साथी भी थे और उनके ड्राइवर भी. इमरोज़ कहते हैं, ''अमृता काफ़ी मशहूर थीं. उनको कई दूतावासों की ओर से अक्सर खाने पर बुलाया जाता था. मैं उनको लेकर जाता था और उन्हें वापस भी लाता था. मेरा नाम अगर कार्ड पर नहीं होता था तो मैं अंदर नहीं जाता था. मेरा डिनर मेरे साथ जाता था और मैं कार में बैठकर संगीत सुनते हुए अमृता का इंतज़ार करता था.""धीरे-धीरे उनको पता चला गया कि इनका ब्वॉय-फ़्रेंड भी है. तब उन्होंने मेरा नाम भी कार्ड पर लिखना शुरू कर दिया. जब वो संसद भवन से बाहर निकलती थीं तो उद्घोषक को कहती थीं कि इमरोज़ को बुला दो. वो समझता था कि मैं उनका ड्राइवर हूँ. वो चिल्लाकर कहता था- इमरोज़ ड्राइवर और मैं गाड़ी लेकर पहुंच जाता था.''जिस्म छोड़ा है साथ नहीं