100 साल पहले एक गोली ने बदल दिया था दुनिया का इतिहास
आर्चड्यूक फ़्रांज़ फ़र्डिनैंड की हत्या28 जून. 1914सारायेवो में ऑस्ट्रिया के ताज के उत्तराधिकारी आर्चड्यूक फ्रांज़ फ़र्डिनैंड और उनकी पत्नी सोफ़ी की सर्ब राष्ट्रवादी गैवरिलो प्रिंसिप द्वारा हत्या किए जाने से घटनाओं की जो श्रृंखला शुरू हुई उससे सिर्फ़ छह हफ़्ते में ही जंग शुरू हो गई. कुछ ही दिनों में जर्मनी के समर्थन वाले ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया को चेतावनी जारी की और इसके बाद युद्ध का ऐलान कर दिया जिसका प्रभाव कई गुना बड़ा और चार साल तक चलने वाले संघर्ष में तब्दील हो गया.
रूस की फ़र्स्ट आर्मी पूर्वी प्रशिया में घुस गई और गमबिनेन में जर्मन ठिकानों पर हमला कर दिया जबकि सेकेंड आर्मी जर्मनों को घेरने के इरादे से दक्षिण की ओर से हमला करते हुए आगे बढ़ी. हालांकि, जंग की मुश्किल परिस्थितियों में रूसी अपने इरादों में कामयाब नहीं हो सके और इससे काउंट पॉल वॉन हिंडेनबर्ग और एरिक लुडेनडोर्फ़ की कमान में जर्मन सैनिकों को फिर से संगठित होने का मौका मिल गया. जर्मनी की एट्थ आर्मी उसे घेर रही रूस की सेना से भिड़ने के लिए दक्षिण की ओर बढ़ी जहां उनकी कई भिड़ंत हुईं, जिन्हें टैनेनबर्ग की जंग के नाम से जाना गया, जिसमें 1,25,000 रूसी सैनिक गिरफ़्तार कर लिए गए.
भारतीय सैनिकों ने मारसेय में पहुंचना शुरू किया और एक महीने बाद पश्चिमी मोर्चे पर ईप्रेस में कार्रवाई को देखा. पहली बार भारतीय सैनिक यूरोपीय धरती पर ब्रितानी सेनाओं के साथ लड़े. ईप्रा में 129वीं ड्यूक ऑफ़ कॉनॉट्स ओन बलूचीज़ का सिपाही ख़ुदादाद ख़ान पहला दक्षिण एशियाई सैनिक बना जिसने युद्ध के मोर्चे पर बहादुरी के लिए विक्टोरिया क्रॉस जीता. भारतीय सैनिकों ने जर्मन बढ़त को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और नियो शैपल, दि सॉम और पैशेनडेल की जंग लड़ते रहे. कुल मिलाकर दस लाख से ज़्यादा भारतीय सैनिकों ने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया और इनमें से 7,700 ने पश्चिमी मोर्चे में अपनी जान गंवाई.
जर्मनी के कब्ज़े वाले पूर्वी अफ़्रीका में टांगा बंदरगाह पर कब्ज़ा करने की ब्रिटेन की कोशिश दुर्घटना में बदल गई जबकि संख्या में कम जर्मन सेना ने बाहर से आई भारतीय सेना के हमले को रोक दिया. हालांकि जर्मनों के पास सैन्यबल सीमित था लेकिन उनका नेतृत्व दुर्जेय जनरल पॉल वॉन लेटौ-वॉरबेक कर रहे थे, जो जंगल में युद्ध के माहिर थे. पूरे पूर्वी अफ़्रीकी अभियान के दौरान वॉन लेटौ-वॉरबेक और उनके मुख्यतः अफ़्रीकी सैनिकों ने इलाके का विशेषज्ञ की कुशलता से इस्तेमाल किया और अपना पीछा करने वालों से एक कदम आगे रहे और गुरिल्ला शैली के विनाशकारी हमले करते रहे. वॉन लेटौ-वॉरबेक ने नवंबर 1918 में अंतिम जंग तक लड़ाई जारी रखी.