जानिए क्या है उनके पड़ोसियों का हाल
बिन लादेन की मौत के पांच साल पूरे हो चुके हैं। पर कई सवालों के जवाब अब तक नहीं मिले हैं। पड़ोसियों को नहीं पता कि अगले पल क्या होने वाला है।
विशाल परिसर से घिरी वो खुली जगह तेज़ी से नज़रों से ओझल हो रही है। लादेन के मारे जाने के बाद अब यहां सन्नाटा पसरा है। पास में धीरे धीरे नए, छोटे-डिब्बानुमा मकान बन रहे हैं। बेतरतीब ढंग से बनने के कारण पूरा इलाक़ा बहुत भीड़-भाड़ वाला लगता है। गली में ज़रा आगे बढ़ते हैं तो वो हिस्सा दिखता है जहां कभी कंपाउन्ड की लंबी-ऊँची दीवारें हुआ करती थीं। लादेन की मौत के बाद अब यहां सब कुछ ढह चुका है।
लादेन के मकान की एक शहतीर (बीम) के कुछ टुकड़े ज़रूर इधर उधर पड़े हुए दिखते हैं। ज़मीन से एक छोटी सी पाइप निकली हुई है जिसमें से झर-झर पानी आ रहा है। यह पाइप उस गहरे कुएं से जुड़ा हुआ है जिस कुंए से कभी बिन लादेन के घरेलू कामों के लिए पीने का पानी आता था। अब पाइप से निकलने वाले इस पानी का इस्तेमाल पड़ोसी कर रहे हैं। वैसे तो आस-पास बहुत कुछ बदल गया है लेकिन घटना की यादें अब भी ताज़ा हैं, वे नहीं बदलीं। उस घटना ने जिसने 2011 के मई में ऐबटाबाद और पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था।
परिसर में काम कर रहे एक मज़दूर से जब पहचान उजागर नहीं किए जाने की शर्त पर कुछ पूछा गया तो वह अगले दिन वहां नहीं मिला। उसके घर पर ताला लगा था।
ज़ैन बाबा, लादेन का सबसे क़रीबी पड़ोसी
ज़ैन बाबा 84 साल के हैं। उनका घर लादेन के घर के बाद सबसे पहले पड़ता है और सबसे नज़दीक है। ये घर लादेन के घर की गली के उस पार है। हर सुबह वे एक बड़े से पेड़ के नीचे आकर बैठते हैं। आस पास रहने वाले अधिकांश बुज़ुर्ग यहीं बैठकी जमाते हैं। 2 मई की उस रात तक ज़ैन बाबा ने अपने बेटे के साथ अरशद ख़ान के मकान की पहरेदारी की। वो मकान जिसमें लादेन रहते थे। अमरीकियों के लिए अबू अहमद अल-कुवैत ही अरशद हैं। अरशद के फ़ोन कॉल्स से ही ख़ुफ़िया विभाग को इस ठिकाने की जानकारी मिली थी।
परिसर के कुछ हिस्सों में अभी भी ज़ैन और उनके बेटे का आना-जाना है। घटना के बाद पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी ने छापा मारा और उन्हें गिरफ़्तार कर दो महीने तक अपनी हिरासत में रखा था। वे बताते हैं, "उन्होंने हमारे हाथ बांधे, आंखों पर भी पट्टी बांधी। वे हमसे जानना चाहते थे कि क्या हमने ओसामा को उस परिसर में देखा है। हम कहते रहे कि हमने नहीं देखा. उन्हें बताया था कि हमने वहां बस दो भाइयों और कुछ बच्चों को देखा है।"
पांच साल गुज़रने के बाद भी उन पर तलवार लटकी हुई है
वे बताते हैं कि जब भी विदेश से कोई पत्रकार यहां आता है वह उनसे बात करना चाहता है। लेकिन फिर सरकारी गाड़ियों पर लदे और सादे कपड़े पहने हुए कुछ लोग आते हैं और कहते हैं कि हम किसी से भी कोई बात न करें।
उन्होंने बताया कि कैसे हाल ही में एक फ्रांसीसी पत्रकार इंटरव्यू लेने आया और सुरक्षा अधिकारी उसे पकड़ कर ले गए। उस पत्रकार ने जिस बूढ़े आदमी से इंटरव्यू लिया वह अगले दिन मरा हुआ पाया गया। फिर अगले दिन कुछ लोग सादी वर्दी में ज़ैन बाबा से मिलने आए और उनसे उनके बेटे शमरेज़ का पता पूछने लगे।
ज़ैन कहते हैं, "मैं लोगों के सवालों से थक चुका हूं। मैं अब मीडिया से कोई बात नहीं करना चाहता। क्योंकि भले मीडिया किसी और से बात करती हो लेकिन सुरक्षा अधिकारी हमसे आकर सवाल करते हैं।" पर अब उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं सताती। उन्हें लगता है कि अब इस उम्र मे उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा। हां, यहां की परिस्थितियां ये दिखाती है कि सुरक्षा एजेंसियां बहुत दबाव में हैं।
शकील रफ़ीक़, ठेकेदार
शकील रफ़ीक़ (बदला हुआ नाम) कभी बड़े ही मिलनसार, ज़िम्मेदार और हंसमुख इंसान हुआ करते थे। लेकिन अब वे पूरी तरह बदल चुके हैं। उनके एक पड़ोसी ने बताया, "अब वे सिर झुका कर चलते हैं। यदि कोई दूर से उन्हें सलाम करे तो जवाब में बस हाथ उठाकर हिला देते हैं।" एक ज़माने में निर्माण ठेकेदार रहे रफ़ीक़ का कारोबार तब बुलंदियां छूने लगा जब वे अरशद ख़ान से मिले। उन्होंने अरशद ख़ान को बिन लादेन का परिसर बनाने के लिए मज़दूर और माल की आपूर्ति करना शुरू किया। कुछ साल बाद लादेन के ठिकाने पर अमरीका ने छापा मारा। उसके बाद रफ़ीक़ की ज़िंदगी बदल गई।
सुरक्षा एजेंटों ने उनके घर पर भी छापा मारा और उन्हें साथ ले गए। पड़ोसी जो उनकी गिरफ़्तारी के गवाह थे, ने बताया कि उस वक्त पूरी गली में सादी वर्दी वाले लोग भरे हुए थे। कंधे पर झोला टांगे तब जो वे गए फिर कई महीनों तक घर नहीं लौटे।
छापे के बाद की गई छानबीन में शामिल एक सुरक्षा अधिकारी ने बताया कि रफ़ीक़ का नाम लादेन को मुहैया की जाने वाली कई तरह की सुविधाओं में दर्ज था। बाद के सालों में रफ़ीक़ कई बार कभी कम तो कभी ज़्यादा दिन के लिए ग़ायब हुए। पिछली बार कुछ महीने पहले वे गए थे पर अब तक वापस नहीं लौटे। एक पड़ोसी ने बताया, "हर बार की तरह इस बार भी वे वे कंधे पर एक झोला लटकाए गए हैं। यह संकेत होता है कि वे कुछ वक्त के लिए बाहर जा रहे हैं। लेकिन कितने दिनों के लिए? कोई नहीं जानता।"
यासिर ख़ान, पुलिस वाला जो बहुत जानता था?
क्या यासिर ख़ान, जो एक पुलिसकर्मी थे, ज़रूरत से ज्यादा जानते थे? क्या कंपाउंड में रहने वालों से उनका कोई संबंध था? किसी को नहीं पता। यासिर की तैनाती ऐबटाबाद में 2011 के मई में हुई थी। वे परिसर से बस कुछ ही दूरी पर रहते थे। एक वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी ने बताया कि उन्हें इलाक़े में अक्सर सादी वर्दी में घूमते देखा जाता था। वे कुछ इस तरह आस पास की चीज़ों पर नज़र रखते थे जिस तरह कोई जासूस रखता है। उनके साथ काम करने वाले एक पुलिसकर्मी ने बताया कि 2 मई को वे आधी रात को घर आए थे। उसी समय छापे के दौरान अमरीका ने एक हेलिकॉप्टर मार गिराया था।
विस्फ़ोट की आवाज़ आने के बाद पुलिस सर्तक हो गई। कार्रवाई के लिए कई अधिकारियों सहित ख़ान को भी फ़ौरन बुलाया गया था। अगले ही दिन सादे कपड़े वाले लोग उन्हें अपने साथ ले गए.छापे के बाद तो सादे कपड़े वालों ने यासिर सहित दर्जन-भर लोगों को साथ ले गए थे। बाक़ी तो लौट आए लेकिन उनका अब तक कोई पता नहीं है।
एक सुरक्षा अधिकारी बताते हैं कि साल भर पहले तक वे जीवित थे। लेकिन उन्हें कहां रखा गया है और किस ख़ुफ़िया सर्विस ने उन्हें पकड़ा है, इसके बारे में वे नहीं जानते। यासिर के परिवार ने मीडिया से कभी बात नहीं की। लेकिन उनका दर्द पड़ोसियों से छिपा नहीं है। उनकी मां तो ज़िंदा हैं लेकिन वे कहां है इसके बारे में उनकी पत्नी और बच्चों को अब तक कुछ नहीं मालूम।
पुलिस अधिकारी, छापे के बाद लादेन के परिसर में घुसने वाले पहले व्यक्ति
घटना सामान्य नहीं तो असाधारण भी नहीं थी। 2 मई 2011 की आधी रात को हुए विस्फोट के बारे में पुलिस यही कहती है। एक पुलिस अधिकारी बताते हैं कि ऐबटाबाद में सेना का मोर्चा है। हेलीकॉप्टर में आग लगने की घटना, भले ही पहले कभी नहीं हुई हो, लेकिन यदि ऐसा हुआ तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं थी।
ये अधिकारी उन पुलिस अधिकारियों में शामिल थे जो छापे के बाद लादेन के परिसर में पहली बार घुसे थे। वे बताते हैं, "अंधेरा होने के कारण पता नहीं चल रहा था कि वो पाकिस्तानी हेलिकॉप्टर था, या अमरीकी।" औरतें और बच्चे रो रहे थे, चिल्ला रहे थे। परिसर को सेना ने तुरंत अपने क़ब्ज़े में ले लिया था। इसलिए पुलिस मामले में आगे कोई छानबीन नहीं कर पाई।
"यह एक शर्मिंदगी भरा पल था। हम न तो इस बात को स्वीकार कर पा रहे थे कि ओसमा यहां है और न ही इस बात को झुठला पा रहे थे। हमारा चुप रहना ही बेहतर था।" लेकिन चुप्पी साधने के बावजूद बिन लादने का भूत इस शहर का पीछा नहीं छोड़ रहा। वे कहते हैं, "ऐबटाबाद में अलर्ट की स्थिति बनी हुई है।"
International News inextlive from World News Desk
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