रात की बात तो दूर दिन में भी कोई अकेला इंसान खंडहर बन चुके घरों में घुसने से डरता है।
ऐसी मान्यता है कि पालीवाल ब्राह्मणों ने कुलधरा और जैसलमेर के चारों और 120 किलोमीटर इलाक़े में फैले 83 अन्य गांवों को लगभग 500 सालों तक आबाद किया था।
इन पालीवाल ब्राह्मणों ने 1825 में गाँव छोड़ते समय शाप दिया था कि इस जगह जो भी बसेगा नष्ट हो जाएगा.
पालीवालों के 5,000 परिवारों ने उस समय के जैसलमेर रियासत के दीवान सालिम सिंह के अत्याचारों से परेशान होकर गाँव छोड़ा।
सालिम सिंह ने दो जैसलमेर राजाओं मूलराज और गज सिंह के समय दीवान के तौर पर काम किया। सालिम सिंह ने पालीवालों के करों और लगान में इतनी बढ़ोतरी कर दी कि उनका व्यापार और खेती करना मुश्किल हो गया।
ब्रिटिश राज्य के राजस्थान में राजनीतिक नुमाइंदे जेम्स टॉड ने पालीवालों के कुलधरा छोड़ने के बारे में लिखा है।
कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी किताब 'ऐनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान' में लिखा है कि सालिम सिंह के अत्याचारों की वजह से ‘यह पैसे वाला समाज लगभग स्व निर्वासन में है और बैंकर्स अपनी मेहनत के मुनाफे के साथ घर लौटने को डरते हैं।’
टॉड ब्रिटिश साम्राज्य से चाहते थे वो सालिम सिंह के कुशासन की वजह से जैसलमेर रियासत से अपनी संधि तोड़े।
1818 की संधि सुनिश्चित करती थी कि ब्रिटिश सेना जैसलमेर को बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रखेगी। टॉड यह भी लिखते हैं कि ‘सालिम सिंह ने साजिश के तहत पालीवालों की सम्पत्ति को कम किया।’
वो कहते हैं कि गज सिंह के पहले दो साल के शासन (1820-21) में ही 14 लाख रुपये की सम्पत्ति अर्जित की गई।
पालीवाल ब्राह्मण उस समय की सिंध रियासत (अब पाकिस्तान में) और दूसरे देशों से पुराने सिल्क रूट से अनाज, अफीम, नील, हाथी दांत के बने आभूषण और सूखे मेवों का ऊँटों के कारवां पर व्यापार करते थे। इसके अलावा वे कुशल किसान और पशुपालक थे।
जैसलमेर पर दो पुस्तकें लिखने वाले स्थानीय इतिहासकार नन्द किशोर शर्मा कहते हैं, 'पालीवाल सिंह के अत्याचारों से दुखी थे लेकिन अपने गाँवों को छोड़ने का फैसला उन्होंने तब किया जब सालिम सिंह ने उनकी एक लड़की पर बुरी नज़र डाली। सिंह की पहले से सात बीवियां थीं।'
नन्द किशोर शर्मा जैसलमेर में दो सांस्कृतिक संग्रहालय चलाते हैं।
उन्होंने अपनी किताब 'जैसलमेर, दि गोल्डेन सिटी' में लिखा है कि सालिम सिंह ने लड़की सौंपने के लिए पालीवालों को एक दिन का समय दिया जिस पर पालीवाल बहुत गुस्सा थे। उन्होंने काठोरी गाँव में पंचायत की और जैसलमेर छोड़ने का फैसला किया।
राजस्थान पुरातत्व विभाग के दस्तावेज़ भी शर्मा के कथन की पुष्टि करते हुए प्रतीत होते हैं, “कालचक्र का एक और प्रतिकूल दौर आया और ब्राह्मण समाज को तत्कालीन जैसलमेर रियासत से मजबूर होकर अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए सन 1825 में सभी आबाद गांवों को एक ही दिन में छोड़ना पड़ा।”
ऐसा माना जाता है की पालीवाल जैसलमेर से निकलकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में बस गए। उन्होंने जो गाँव छोड़े उनमें से अधिकतर कुछ नए नामों के साथ फिर से आबाद हो गए।
लेकिन कुलधरा और कुछ हद तक खाबा (इसके एक हिस्से में पाकिस्तान से विस्थापित हिन्दू रहते हैं) आज तक वीरान हैं।
दो दशक पहले राजस्थान सरकार ने उस समय कुलधरा और खाबा को अपने अधिकार में ले लिया जब तीन विदेशी पर्यटक कुलधरा में गुप्त खजानों की खोज करते हुए पकड़े गए। भारतीय पुरातत्व विभाग ने दोनों स्थानों को संरक्षित स्मारक घोषित किया है।
एक गैर सरकारी संस्थान जैसलमेर विकास समिति, जिसके अध्यक्ष जैसलमेर के ज़िलाधिकारी हैं, कुलधरा और खाबा की देखरेख राजस्थान पुरातत्व विभाग के साथ मिलकर करती है।
कुलधरा में 600 से अधिक घरों के अवशेष, एक मंदिर, एक दर्जन कुएं, एक बावली, चार तालाब और आधा दर्जन छतरियां हैं। घरों के अन्दर के हिस्सों में पालीवालों ने तहखाने बनाये थे जहाँ संभवत वे अपने आभूषण, नकदी और अन्य कीमती सामान रखते होंगे।
पारानोर्मल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के गौरव तिवारी जो 17 से ज़्यादा बार कुलधरा और खाबा जा चुके हैं, बताते हैं कि उन्होंने वहां अपने इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स पर आत्माओं की उपस्थिति दर्ज की। लेकिन जैसलमेर विकास समिति के द्वारपाल पद्माराम इसका ज़ोरदार खंडन करते हैं।
राजस्थान सरकार ने कुलधरा की इमारतों के नवीनीकरण और मरम्मत के लिए 4 करोड़ रुपये दिए हैं।