प्रश्न: आप कहते हैं कि भजन में खो जाना नशा है। यह भी कहते हैं कि तैरने में, खेल में, ध्यान में आनंद खोजने से आनंद खो जाता है और उनमें डूबने से आनंद स्वयं हमें खोज लेता है। कृपया डूबने तथा होश और बेहोशी की सीमारेखाओं को स्पष्ट करें।

भजन करते-करते खो जाना नशा नहीं

खो जाने के लिए भजन करना नशा है; भजन करते-करते खो जाना नशा नहीं है। फिर से दोहरा दूं। थोड़ा जटिल है, बारीक है, लेकिन समझ में आ जाएगा। खो जाने के लिए भजन करना नशा है- सिर्फ खो जाने के लिए। जीवन में चिंता है, दुख है, पीड़ा है, तनाव है, अशांति है, संताप है। इससे बचना है; इसको भूलना है; कहीं भी अपने को व्यस्त कर लेना है, ताकि यह भूल जाएं। तो कोई सिनेमा में जाकर बैठ जाता है, दो घंटे भूल जाता है; कोई शराबघर में बैठ जाता है, दो घंटे भूल जाता है; कोई मंदिर में जाकर कीर्तन करने लगता है, वहां भूल जाता है। ये भूलने की अलग-अलग विधियां हुईं, लेकिन तीनों की नजर एक है-चिंता को भूलना। लेकिन घर लौटकर चिंता प्रतीक्षा कर रही है फिर तुम वहीं के वहीं हो, वे दो घंटे व्यर्थ ही गए; उनसे कुछ सार न हुआ। उन दो घंटों के कारण चिंता मिटेगी नहीं। भूलने की खोज करना नशा है, लेकिन भजन करते खो जाना बिल्कुल दूसरी बात है। तुम खोने गए नहीं थे; तुम्हारी कोई आकांक्षा अपने को भूलने की न थी; तुम किसी चिंता से बचने को न गए थे; तुम चिंता से उठने गए थे, जागने गए थे। लेकिन ध्यान करते-करते खो गए। यह खोना नशा नहीं है या अगर यह नशा है, तो यह नशा होश का नशा है। इसमें तुम खो भी जाओगे और जागे भी रहोगे। तुम पाओगे कि तुम बिल्कुल मिट गए और साथ ही पाओगे कि पहली दफा तुम हुए।

इस बात को तो अनुभव से ही समझ पाओगे। एक ऐसी घड़ी है ध्यान की, जब तुम होते भी नहीं; मैं नहीं होता उस घड़ी में, सिर्फ अस्तित्व होता है; मात्र शुद्ध होना होता है; न कोई विचार होता है, न कोई अहंकार। चित्त का दर्पण पूरा स्वच्छ होता है, कोई धूल नहीं होती। उस स्वच्छ दर्पण में परमात्मा झलकता है। वह शांति का अपूर्व क्षण है; वह समाधि की अपूर्व घटना है।

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ध्यान के दो ढंग

तो ध्यान दो ढंग से किया जा सकता है: एक-कि तुम सिर्फ अपने को भूलना चाहते हो; दो-कि तुम अपने को बदलना चाहते हो। और जो तुम्हारा भीतर कारण होगा, उसी के फल लगेंगे; तुम जो बोओगे, वही काटोगे। तो मैं निश्चित कहता हूं कि भजन में खो जाना नशा है, अगर तुम खो जाने के लिए ही गए। अगर तुम मिटने के लिए गए, तो नशा नहीं है- तो जागरण है, तो होश है, तो अमूर्छा है, तो अप्रमाद है। और ध्यान रखना, तुम जब आनंद की तलाश को जाओगे तो आनंद को न पाओगे, क्योंकि वह तलाश ही बाधा बन जाएगी। तुम जब आनंद के पीछे पड़ जाते हो तो तुम चूकोगे; क्योंकि आनंद तभी आता है, जब तुम मांगते नहीं। जब तक तुम मांगोगे, तब तक न मिलेगा; जब तुम सब मांग छोड़ दोगे, तब तुम पाओगे: सब तरफ से दौड़ा चला रहा है।

जीवन की गहरी से गहरी प्रतीति, जीवन का गहरा से गहरा नियम यही है- एस धम्मो सनंतनो--यही सनातन धर्म है कि जब तक तुम खोजने के लिए दौड़ोगे, तब तक न पा सकोगे। जब तुम चेष्टा करते हो, तब तुम बड़े अशांत हो जाते हो। जब तुम चेष्टा छोड़ देते हो, तुम शांत हो जाते हो। उस शांति के क्षण में अपने आप आ जाता है। आनंद तुम्हारा स्वभाव है। जब तुम चेष्टा करते हो, सिकुड़ जाते हो। तुम्हारे भीतर है, कहीं से लाना नहीं है लेकिन तुम इतने सिकुड़ जाते हो कि जगह नहीं रह जाती आने की। तुम जानते हो कि यही तुम अगर बिना बेचैनी के करो, तो इतने ही समय में इससे ज्यादा सुविधा से हो जाएगा। आनंद मिलता है तब, जब तुम आनंद की तलाश ही नहीं कर रहे होते। तभी चारों तरफ से, बाहर-भीतर से, सब तरफ से आनंद उत्सव शुरू हो जाता है।

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ध्यान को साधन मत समझो

तलाश छोड़ो; मांग मत रखो; ध्यान को साधन मत समझो, साध्य समझो। ऐसा मत सोचो कि आनंद मिलेगा, इसलिए कर रहे हैं; करने में आनंद लो। आनंद मिलेगा, इसलिए नहीं; करना ही आनंद है और जब करना आनंद बन जाए, साधन साध्य हो जाए, तो राह पर ही मंजिल आ जाती है। तब तुम जहां बैठे हो, वहीं तुम्हारा परमात्मा प्रकट हो जाता है; तुम्हें कहीं जाना नहीं पड़ता। और जाओगे भी तुम कहां? उसका कोई पता-ठिकाना भी नहीं; उसके घर का कुछ सूत्र भी नहीं तुम्हारे हाथ में है। कहां खोजोगे? आनंद को कहां खोजोगे? सत्य को कहां खोजोगे? मोक्ष को कहां खोजोगे? तुम शांत होकर बैठ जाओ। अभी शांत बैठो, बस उसी घड़ी में सब घट जाएगा; बरस जाएगा आकाश।

ओशो

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