कानन देवी की कहानी
भारत की प्रसिद्ध अभिनेत्री, गायिका और फ़िल्म निर्माता थीं 'कानन बाला' जिन्हें आज हम काननदेवी के नाम से जानते हैं। भारतीय सिनेमा जगत में उन्हें एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने न केवल फ़िल्म निर्माण की विधा बल्कि अभिनय और बगैर प्रशिक्षण हासिल किए पार्श्वगायन करके भी दर्शकों के बीच अपनी ख़ास पहचान बनाई थी। वह पहली बांग्ला कलाकार थीं, जिन्हें भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए 1976 में 'दादा साहेब फाल्के पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। उन्हें विश्वभारती ने ऑनरेरी डिग्री से सम्मानित किया था और 1968 वे नागरिक सम्मान पदमश्री से भी सम्मानित की गयी थीं।
10 साल की उम्र में शुरू किया काम
एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में जन्मी कानन के दत्तक पिता रमेश चन्द्र दास की जब मृत्यु हुई उस समय वे महज 10 साल की थीं। परिवार की डांवाडोल आर्थिक स्थिति के चलते उन्हें इसी छोटी उम्र में एक पारिवारिक मित्र की मदद से उन्हें 'ज्योति स्टूडियो' की फ़िल्म 'जयदेव' में काम करने का मौका मिला। इसके बाद कानन देवी को ज्योतिस बनर्जी के निर्देशन में राधा फ़िल्म्स के बैनर तले बनी कई फ़िल्मों में बतौर बाल कलाकार काम किया। 1934 में आयी फ़िल्म 'माँ' बतौर लीड एक्ट्रेस कानन देवी की पहली हिट फ़िल्म बनी।
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चढ़ने लगी कामयाबी की सीढ़ियां
बाद में कानन देवी न्यू थियेटर में शामिल हो गईं, फिर उनकी मुलाकात रायचंद बोराल से हुई, जिन्होंने उनके सामने हिन्दी फ़िल्मों में काम करने का प्रस्ताव रखा। तभी कानन देवी ने संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की, उन्होंने उस्ताद अल्लारक्खा और भीष्मदेव चटर्जी से संगीत सीखा। इसके बाद उन्होंने अनादि दस्तीदार से रवीन्द्र संगीत भी सीखा। 1937 में फ़िल्म 'मुक्ति' सुपर हिट हुई, पी.सी.बरुआ के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म ने कानन देवी को न्यू थियेटर की चोटी की कलाकारों की फेहरिस्त में शामिल कर दिया।
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हिंदी फिल्मों में की शुरूआत
1941 में कानन देवी ने न्यू थियेटर छोड़ दिया और वे स्वतंत्र रूप से काम करने लगीं। 1942 में आयी फ़िल्म 'जवाब' कानन देवी के हिंदी फिल्मों के करियर में सबसे हिट फ़िल्म साबित हुई। इसी फ़िल्म में उन पर फ़िल्माया गया गीत- "दुनिया है तूफान मेल", उन दिनों का टॉप सांग बना। इसके बाद कानन देवी की 'हॉस्पिटल', 'वनफूल' और 'राजलक्ष्मी' जैसी फ़िल्में भी रिलीज हुई, और सुपरहिट रहीं। 1948 की फ़िल्म 'चंद्रशेखर' अभिनेत्री के रूप में कानन देवी की अंतिम हिन्दी फ़िल्म थी। फ़िल्म में उनके नायक की भूमिका में अशोक कुमार थे। उन्होंने 'श्रीमती पिक्चर्स' के नाम से अपना प्रोडेक्शन हाउस शुरू किया। अपने बैनर तले उनके प्रोडक्शन हाउस ने वामुनेर में (1948), अन्नया (1949), मेजो दीदी (1950), दर्पचूर्ण (1952), नव विद्यान (1954), आशा (1956), आधारे आलो (1957), राजलक्ष्मी ओ श्रीकांता (1958), इंद्रनाथ, श्रीकांता औ अनदादीदी (1959) और अभया ओ श्रीकांता (1965) जैसी कई फिल्मों का र्निमाण किया।
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शादी टूटने का दर्द
1940 में कानन देवी ने ब्रह्म समाज के मशहूर शिक्षाविद् हरम्बा चंद्र मैत्रा के बेटे अशोक मैत्रा से शादी की, पर उस समय का कंजरवेटिव समाज इस शादी के सख्त खिलाफ था। समाज के अनुसार महिलाओं का फिल्मों में काम करना गलत है और शादी के बाद कानन को एक्टिंग छोड़नी होगी। उस समय के मशहूर कवि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कानन और अशोक की शादी पर एक सुंदर गिफ्ट और अपना आर्शिवाद दिया तो ब्रह्म समाज ने उनकी भी बहुत आलोचना की। आखिरकार ना चाहते हुए भी ये शादी टूट गयी और कानन को तलाक लेना पड़ा। कानन इससे बहुत दुखी हुई और तलाक के बावजूद उनके अपने ससुराल वालों खास तौर पर सास और ननद से मधुर संबंध बने रहे। 1949 में उन्होंने एक नौसैनिक अधिकारी हरिदास भट्टाचारजी से दूसरी शादी कर ली। 17 जुलाई, 1992 को कानन देवी इस दुनिया को अलविदा कह गईं।
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