हर मनुष्य सुख और आनन्द का जीवन जीना चाहता है । बहुत से लोग अपने सत आचरण एवं कर्मठता से सांसारिक आवश्यकताओं की प्राप्ति कर सुखमय जीवन जीते हैं तो बहुत से लोग भाग्य के सहारे सब कुछ पाने का आसरा लगाए रहते हैं । ऐसे लोग भाग्य में लिखा होगा तो सब कुछ मिलेगा, सोच कर बैठे रहते हैं तो कुछ लोग भगवान ही उनकी इच्छा पूरी करेगा, ऐसा मानकर पूजा-पाठ के सहारे सुखद जीवन की कल्पना करते रहते हैं ।
यह सत्य है कि बिना बीज के जैसे वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार बिना कर्मबीज के आकांक्षाओं का वृक्ष और उस पर फल नहीं लग सकते । धर्मग्रंथों में धर्म की जो व्याख्या है वह यह कत्तई नहीं कि आकाश से भगवान प्रकट आएंगे और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर देंगे। फिर भी हम ऐसा ही सोचकर कर्म करने की बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। धर्मग्रंथों के बताए रास्ते पर सूझ-बूझ के साथ चलने पर आत्मबल मजबूत होता है।
कौन महत्वपूर्ण? भाग्य या पुरुषार्थ
महाभारत के अनुशासन पर्व में इस बात का उल्लेख किया गया है । एक बार युधिष्ठिर ने इसी तरह का प्रश्न भीष्म पितामह से पूछा कि भाग्य के सहारे जीना चाहिए या पुरुषार्थ के सहारे। इस पर पितामह भीष्म ने कहा कि धर्म अपनाने एवं उसके अनुसार जीवन-पथ पर चलने से व्यक्ति की सोच एवं दृष्टि सुस्पष्ट होती है। वह सदैव सत आचरण करता है, जिससे उसके जीवन में नकारात्मकता नहीं आती, जबकि भाग्य के सहारे जीने वाला पहले आलसी होता है और उसके बाद नकारात्मक हो जाता है, जिससे उसके इर्द-गिर्द तनाव डेरा डाल देता है। फिर उसकी इस कमजोरी का दूसरे लोग भी फायदा उठाने लगते हैं।
दान का अर्थ
ऐसा नहीं कि खूब दान करने से भगवान भागते चले आएंगे। महात्माओं ने मां लक्ष्मी की प्रसन्नता से जिस धन-दौलत मिलने की बात कही है वह अपने लक्ष्य के प्रति निष्ठा से लगे रहना ही बताया है। लक्ष्मी का दुरुपयोग भी मना किया गया है। कुपात्र को दान आदि देने से दोष भी बताया गया है । अत: व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ पर ही भरोसा करना चाहिए ।
-सलिल पांडेय
भगवान की भक्ति में मौजूद शक्ति को पहचानिए, बाकी शक्तियां लगेंगी बेकार!
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