हर साल दशहरा के मौके पर हम दशानन यानी रावण का दहन करते हैं। लेकिन, हमारे शहर के भीतर बसे दशानन का दहन नहीं हो पाता। शहर के लोगों को समस्या रूपी दशानन लंबे अर्से से परेशान करता आ रहा है। शासन से स्तर से हर बार इन समस्याओं के निदान का वादा तो किया जाता है, लेकिन इनका निराकरण कभी नहीं हो पाता। अब तो ऐसा लगता है कि शहर के दशानन का मुंह और बड़ा होता जा रहा है। दशहरा के मौके पर आइए जानते हैं रांची शहर की दस बड़ी समस्याओं की जड़ क्या है और इनके निदान के उपाय क्या हैं?
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1
सड़क जाम : ट्रैफिक का अनपढ़ मॉडल
15000 अवैध ऑटो
1.5 लाख गाडि़यों का भार
सिटी में रहने वालों के लिए ट्रैफिक जाम एक सिरदर्द है। जो फासला दस मिनट में तय होना चाहिए, वह जाम के कारण एक घंटे में भी तय नहीं हो पाता।
क्या है कारण : शहर की प्रमुख सड़कों पर अलग-अलग तरह की गाडि़यों के लिए कोई लेन निर्धारित नहीं है। राहगीर से लेकर रिक्शा तक और बड़ी-बड़ी बसों से लेकर लक्जरी कार तक एक ही लेन में चलते हैं। जाम का प्रमुख कारण अवैध रूप से चल रहे 15 हजार ऑटो और 1.5 लाख छोटी बड़ी गाडि़यों का भार भी है।
कोट
मैं हर रोज घर से कॉलेज के लिए एक घंटे पहले निकलती हूं, फिर भी तीन किलोमीटर के फासले को तय करने में एक घंटा से ज्यादा समय लग जाता है। क्लास पहुंच कर इतना फ्रस्ट्रेट हो जाती हूं कि पढ़ाई में मन नहीं लगता।
तिरथा
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2
खराब सड़कें - विभागों में सामंजस्य नहीं
बनते ही दूसरा विभाग खोद देता है सड़क
घटिया सामग्री, 6 महीने भी नहीं टिकती
प्रमुख सड़कों को छोड़ दें, तो कनेक्टिंग रोड की हालत बेहद खराब है। बरसात में आधी राजधानी कीचड़युक्त हो जाती है। गढ्डों में गिरकर लोग जख्मी होते हैं।
क्या है कारण : सड़कों की खस्ता हाल के लिए सरकारी विभागों में समन्वय का अभाव सबसे बड़ा कारण है। पथ निर्माण विभाग अगर किसी सड़क बनाता भी है, तो महीने भर के भीतर पेय जल वाले या नगर निगम के लोग गढ्डा खोद देते हैं। लोग पूछते हैं कि पाइप डालना ही है, तो सड़क बनाने से पहले ही क्यों नहीं डाला जाता?
कोट
वीआईपी इलाकों की सड़कें चमकती रहती हैं। सीएम आवास के सामने किसी विभाग की ओर से गढ्डा खोदने की हिमाकत क्यों नहीं की जाती? गलियों में सड़कें बनने के बाद ही क्यों पाइप लाइन या नाली बनाने का ख्याल आता है?
पप्पू
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3
बिजली : उत्पादन ही नहीं, मिलेगी कैसे?
3 पावर प्लांट, तीनों जर्जर
300 मेगावाट चाहिए, मिलता है 150 ही
राजधानी होने के बावजूद रांची शहर में पावर कट रोजमर्रा का हिस्सा है। एक दिन में 6 से 7 घंटे तक बिजली की कटौती की जाती है। गर्मी के मौसम में कटौती का समय बढ़ जाता है।
क्या है कारण : झारखंड में सरकारी इलेक्ट्रिसिटी प्लांट तीन हैं। सिकिदरी हाइडल पावर प्लांट, पतरातू थर्मल और तेनुघाट थर्मल। इन तीनों में हमेशा दो से तीन इकाई खराब रहती है। नतीजा यह है कि उत्पादन हो ही नहीं पाता। अकेले राजधानी को हर दिन 300 मेगावाट बिजली चाहिए, लेकिन फुल लोड दावे के बावजूद लोड शेडिंग आम है।
कोट
यह बेहद शर्मनाक है कि झारखंड गठन को 16 साल हो चुके हैं, फिर भी यहां के लोग बिजली जैसी मूल-भूत सुविधा के लिए आंसू बहा रहे हैं। जब रांची में ही हमें निर्बाध बिजली नहीं मिलती है, तो गांवों का आलम क्या होगा?
पोरोमा
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4
पीने का पानी : डैम में है, घर में नहीं
3 डैम तो हैं, पर देने का सिस्टम ही नहीं
45 एमजीडी पानी चाहिए रांची शहर को
रांची शहर में पानी का डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम ध्वस्त हो चुका है। पुराने पाइपलाइन से सिर्फ 10 मिनट के लिए पानी दिया जाता है। नए पाइप लाइन को बिछाए 5 साल बीत चुके हैं, लेकिन उससे सिर्फ हवा ही निकलती है।
क्या है कारण : पेयजल की ज्यादा किल्लत गर्मी में होती है। सरकार ने जल श्रोतों को विकसित ही नहीं किया है, जिसके चलते डैम में जल स्तर नीचे चला जाता है। रांची शहर को 45 एमजीडी पानी की जरूरत है। रुक्का डैम से 30, हटिया से 10 और गोंदा से 4-5 एमजीडी पानी की सप्लाई की जाती है। लेकिन, यह पानी किसके पास जाता है, यह रहस्य बना हुआ है।
कोट
गर्मी आते ही पीने के पानी की किल्लत शुरू हो जाती है। बार-बार राशनिंग की जाती है। लेकिन, यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। एक सिस्टम डेवलप करना ही होगा। क्या सरकार इसके लिए भी आंदोलन के इंतजार में है?
अमित
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5
कचरे का अंबार : सफाई की इच्छाशक्ति ही नहीं
14 लाख आबादी, 15 सौ मजदूर
कचरा प्रबंधन का कोई उपाय नहीं
रांची शहर में हर चौक-चौराहे पर कचरे का अंबार देखने को मिल जाएगा। शहर की सफाई आज भी पुराने तरीके से ही हो रही है। सफाई का जिम्मा किसी कंपनी को देने की बात होती है, लेकिन फिर मामला रुक जाता है।
क्या है कारण : शहर की आबादी बढ़कर 14 लाख के आसपास हो गई है। सफाई के लिए रांची नगर निगम के पास केवल 15 सौ मजदूर ही हैं। इसके अलावा कचरा के सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के लिए निगम ने किसी तरह का सिस्टम ही विकसित नहीं किया है। यही वजह है कि यहां का कूड़ा वहां, तो वहां का कूड़ा यहां रख कर छोड़ दिया जाता है।
कोट
सिटी के सबसे पॉश इलाके राजभवन के आसपास हमेशा गंदगी का अंबार लगा रहता है। जिन अधिकारियों को राजभवन के सामने का कचरा नजर नहीं आता, वे आम आदमी के मुहल्लों को क्या खाक साफ करवाएंगे।
प्रवीण मिश्रा
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6
बीएसएनएल : सरकार का डेड एसेट
8000 फोन डेड पड़े हैं
केबल फॉल्ट से लाचार है भारत संचार
भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) की सेवा शहर के लोगों के लिए आए दिन परेशानी का सबब बनती है। सबसे बड़ी समस्या तब उत्पन्न होती है, जब लैंडलाइन टेलीफोन खराब हो जाता है और महीनों नहीं बनाया जाता।
क्या है कारण : अधिकारी केबल फॉल्ट का रोना रोते हैं। कहते हैं कि जमीन के भीतर बिछे केबल को दूसरे विभाग के लोग काट देते हैं, इसलिए फोन डेड हो जाते हैं। इसका पता लगाने में काफी कठिनाई होती है। पेयर जोड़ने में हफ्तों गुजर जाते हैं। असल में बीएसएनएल के अधिकारी और कर्मचारी सरकारी होने की मानसिकता से ही नहीं निकल पाए हैं।
कोट
आज भी 8000 टेलीफोन डेड हैं। इस वजह से ब्रॉडबैंड भी नहीं चल रहा। लगता है बीएसएनएल वालों ने प्राइवेट कंपनियों से साठ-गांठ कर ली है। अपनी सेवा इतनी रद्दी कर दो कि तंग आकर लोग प्राइवेट कंपनी के पास चले जाएं।
राजेश
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7
बजबजाती नालियां : सिवर लाइन एक अबुझ पहेली
10 साल से डीपीआर तैयार, नहीं बना सिवरेज सिस्टम
359 करोड़ होना है खर्च, काम सिर्फ 2.5 किलोमीटर
रांची शहर में ओपेन नालियां शहरवासियों को मुंह चिढ़ाती हैं। एक से एक पॉश इलाके में भी नालियों की स्थिति अत्यंत नारकीय है। गंदगी से बजबजाती नालियों से उठती बदबू अफ्रीका के किसी कंगाल देश में होने का एहसास कराती हैं।
क्या है कारण : वर्ष 2002 से ही शहर में सीवरेज-ड्रेनेज सिस्टम बनाने की बात चल रही है। हजार कंट्रोवर्सी हो चुके हैं इसके लिए डीपीआर तैयार करने और टेंडर निकालने में। अब 359 करोड़ रुपए से यह काम होना है। लखनऊ की कंपनी ज्योति बिल्डटेक यह काम कर रही है, जिसने दो साल में 2.5 किलोमीटर ही सीवर लाइन बिछाने में कामयाबी पाई है।
कोट
आम आदमी से यही उम्मीद की जाती है कि वह कीड़े-मकौड़ों की ही तरह जीये। सालों से हम लोग यह सुनते आ रहे हैं कि अब ऐसा सिस्टम होगा, जिसमें नालियां दिखाई ही नहीं देंगी। लेकिन, सारी बातें हवा-हवाई ही साबित हुई हैं।
सौरव
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8
फुटपाथ : राहगीर बाहर, दुकान अंदर
6000 फुटपाथ दुकानदार हैं सिटी में
कोर्ट के आदेश के बावजूद कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं
शहर में फुटपाथ पर दुकानदारों के कब्जे का पुराना इतिहास रहा है। पिछले दस वर्षो से फुटपाथ से कब्जा हटाने की मुहिम चल रही है। इसके बावजूद आज तक न तो कब्जा हटा है और न ही दुकानदारों को कहीं और जगह मिली है।
क्या है कारण : फुटपाथ पर दुकान लगाकर जीविका चलाने वालों के पास कोई विकल्प नहीं है। उन्हें सरकार की ओर से कहीं और जगह दी जानी है। समस्या यह है कि फुटपाथ दुकानदारों को जहां जगह दी जाती है, वहां व्यवसाय का कोई स्कोप ही नहीं होता। अभी जयपाल सिंह स्टेडियम में जगह देने की बात चल रही है, लेकिन फिर भी मेन रोड में दुकान लग रहे हैं।
कोट
पैदल चलना मुश्किल हो गया है। मेन रोड में गाडि़यों की लंबी कतार के बीच से ही राहगीरों को होकर गुजरना पड़ता है। फुटपाथ तो पैदल चलनेवालों के लिए ही बनाया जाता है, लेकिन पुलिसवाले ही दुकानदारों से पैसे लेकर उन्हें छूट देते हैं।
सिद्धौंत ओहदार
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9
सदर हॉस्पिटल : खुद बीमारी का शिकार
270 करोड़ खर्च, नतीजा सिफर
500 बेड का हॉस्पिटल 5 साल से बेकार
शहर के बीचो-बीच स्थित सदर हॉस्पिटल की नई बिल्डिंग पांच साल से बनकर तैयार है, लेकिन किसी काम की नहीं है। इसे चलाने के लिए मेदांता से लेकर अपोलो ग्रुप तक से बात होती रही है, लेकिन नतीजा नहीं निकल पाया है।
क्या है कारण : पांच सालों तक सरकार इस हॉस्पिटल को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी करती रही, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। अब इस साल सरकार ने फैसला किया है कि इसे स्वास्थ्य विभाग चलाएगा। इस फैसले को तीन माह गुजर चुके हैं, लेकिन अभी तक यहां बेड भी नहीं लगाए गए हैं। पुराना हॉस्पिटल जर्जर हो चुका है, जहां सिर्फ 14 डॉक्टर हैं।
कोट
सरकार इस हॉस्पिटल को खुद चलाना चाहती तो है, लेकिन राजनीति के चक्कर में इसे अभी तक चालू नहीं किया गया है। यहां हर दिन 700 मरीज आते हैं, जिनकी इलाज के नाम पर केवल खानापूर्ति होती है। सरकार बेहतर सेवा पर ध्यान दे।
सुधांशु
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10
ट्रेन सर्विस : कनेक्टिविटी बेहद खराब
20 प्रमुख ट्रेनें ही खुलती हैं रांची से
साउथ इंडिया के लिए बेहद कम ट्रेन
राजधानी होने के बावजूद रांची से बड़े शहरों के लिए ट्रेनों की काफी कमी है। जो गिने-चुने ट्रेन सिटी के रेलवे स्टेशन से खुलते हैं, उनमें टिकट मिलना मुश्किल होता है। दक्षिण भारत के राज्यों को जाने के लिए केवल चार ट्रेनें ही हैं।
क्या है कारण : झारखंड पर कभी रेल मंत्रियों ने उतना ध्यान नहीं दिया, जितना दिया जाना चाहिए था। पिछले बीस वर्षो में ज्यादातर रेल मंत्री या तो बिहार से हुए या फिर बंगाल से। इन राज्यों पर रेल मंत्रियों की इनायत रही है। कोलकाता या पटना से जितनी ट्रेनें चलती हैं, उसके मुकाबले में रांची कहीं नहीं ठहरती। वेल्लोर जाने के लिए केवल एक ट्रेन का ही सहारा है।
कोट
मरीजों को लेकर बेंगलुरू या काठपाडी (वेल्लोर) जाने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा मुम्बई के लिए भी सिर्फ दो ट्रेन ही है। गीतांजलि से मुम्बई जाने के लिए लोगों को जमशेदपुर जाना पड़ता है।
शाहनवाज बारी