छ्वन्रूस्॥श्वष्ठक्कक्त्र: रास अगर हैं कहीं तो केवल वृंदावन की धरती पर ही हैं। बिना वृंदावन के रास संभव नहीं। रास किसी भूमि अथवा किसी नृत्य का नाम भी नहीं। बल्कि यह स्वयं को प्रभु के समक्ष समर्पण भाव से अर्पित करने की साधना है। श्रीमद्भागवत कथा यज्ञ के छठे दिन शनिवार को व्यासपीठ से मृदुलकांत शास्त्री ने उपरोक्त बातें कहीं। बिष्टुपुर स्थित माइकल जॉन प्रेक्षागृह में चल रही कथा में शनिवार को रास पंचम अध्याय और रुक्मिणी मंगल का प्रसंग था। रास की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि रास की कथा का वर्णन पूर्व के काल में व्रज मंडल के अतिरिक्त कहीं और नहीं होती थी, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि इसकी मर्यादा का पालन नहीं होता था, लेकिन अब कथाओं में इसका वर्णन होता है। इसकी सारगर्भिता को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि श्रीकृष्ण भी जब निधिवन में रास करते थे तब पहले वृषभान दुलारी राधारानी से आज्ञा लेते थे, तब रास आरंभ करते थे। कथाओं में, सत्संग में भगवान की तलाश करने वालों को संदेश देते हुए उन्होंने कहा कि भगवान हृदय में भी हैं वो सर्वत्र हैं, लेकिन सिद्धस्थ मंदिरों, तीर्थस्थान में प्रभु सहजता से मिलते हैं।

स्वार्थ में सर्वाधिक की चाह

शास्त्री ने कहा कि साधारणत: सबको अपने लिए सर्वाधिक चाहिए। चाहे धन हो, माता-पिता से प्रेम हो, संसार से यश-कीर्ति हो, व्यापार में लाभ हो। सभी क्षेत्र में मनुष्य सर्वाधिक की चाह रखता है। जबकि प्रेम में इसका उल्टा होता है। वहां दूसरों के मध्य में प्रसाद के रूप में बांटने से और बढ़ता है। शास्त्री ने कहा कि माता-पिता हो या बंधु-बांधव, रिश्तेदार या धन, इसकी अहमियत तब मालूम होती है जब ये खो जाते हैं। रविवार को कथा में सुदामा चरित्र और शुकदेव पूजन प्रसंग पर चर्चा के पश्चात कथा का विश्राम होगा।

ये थे उपस्थित

कथा में ओमप्रकाश गर्ग, रतन मेंगोतिया, राजेश मेंगोतिया, ओमप्रकाश अग्रवाल, गोविंद दोदराजका, बनवारी लाल खंडेलवाल, भंवरलाल खंडेलवाल, लालचंद अग्रवाल, सुरेश नरेडी आदि उपस्थित थे।