भारत में जो तेल आयात होता था, उसमें बड़ा हिस्सा ईरान से आने वाले तेल का था, जबकि ईरान के तेल निर्यात में भारत को बड़ा हिस्सा मिलता था. साऊथ एशिया क्लियरिंग के ज़रिए डॉलर रहित व्यापार भारत के लिए काफ़ी आकर्षक था.
लेकिन पूरे विश्व पर ईरान से तेल निर्यात न करने के अमरीकी दबाव के कारण भारत की इस तेल व्यापार में भागीदारी ख़ासी घट गई है.
ईरान और अमरीका के नेतृत्व में विश्व की ताक़तों से हुए समझौते के तहत ईरान पांच प्रतिशत शुद्धता से अधिक यूरेनियम का संवर्द्धन रोक देगा और 20 प्रतिशत या अधिक संवर्द्धित यूरेनियम नष्ट कर देगा.
इसके बाद ईरान के तेल और उससे हुई कमाई पर लगे प्रतिबंधों में संभावित ढील से भारत की ईरान से तेल आयात करने की संभावना को बल मिला है.
तेल का फ़ायदा
फिलहाल ईरान से भारत का तेल आयात घटकर 10 फ़ीसदी से भी नीचे चला गया है. अब इसमें सुधार होगा. ईरान भारत का पड़ोसी देश है और वहां से तेल मंगाना उसके लिए आसान और फ़ायदेमंद होता है.
दूसरी चीज़, भारत में दो रिफ़ायनरी ऐसी हैं, जिन्हें ईरान से आयातित तेल के लिए बनाया गया था. इसका भी फ़ायदा भारत को होगा. भारत में रिलायंस की जो रिफ़ायनरी है, वह पेट्रोलियम उत्पादों की बड़ी निर्यातक कंपनी है.
ईरान की अपनी रिफ़ायनरी क्षमता सीमित होने के कारण वह रिफ़ाइन किए गए उत्पाद उसे निर्यात करता है. अब ईरान को भारतीय निर्यात फिर से शुरू हो सकेगा.
दूसरा फ़ायदा यह होगा कि ईरान से गैस आयात के लिए जिस पाइपलाइन की बात हो रही है, उस पाइपलाइन परियोजना पर आगे बढ़ा जा सकेगा.
ईरान-पाकिस्तान-भारत पाइप लाइन पर तो प्रगति होगी ही, दूसरी तरफ़ ईरान से समुद्र के रास्ते भारत तक गैस पहुंचाने के प्रस्ताव में भी थोड़ी तेज़ी आएगी.
तीसरा फ़ायदा, भारत की ओएनजीसी विदेश और इंडियन ऑयल जैसी कंपनियों ने ईरान में भारी निवेश कर रखा है. ईरान भारत पर दबाव डाल रहा था कि वह काम शुरू करे. प्रतिबंधों के कारण वहां काम शुरू नहीं हो पा रहा था.
अब वह काम दोबारा शुरू हो पाएगा. भारत का निवेश वहां बढ़ सकता है और जो तेल और गैस के कुएं भारत ने ख़रीदे हैं, उसमें भी काम शुरू हो पाएगा और वह तेल और गैस भारत आएगा.
भारतीय कंपनियां जाएंगी ईरान
भारत की तमाम कंपनियों को ईरान के तेल और गैस से जुड़ी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण में काम मिलता रहा है. वो काम बीच में ठप हो गए थे. एक बार फिर ईरान से प्रतिबंद्ध हटने की सूरत में ये काम मिलने लगेंगे.
ईरान में पुनर्निर्माण के काम शुरू होंगे और उसमें भाग लेने भारतीय कंपनियां ईरान जा सकेंगी.
समझौते के बाद कुछ चीजों से प्रतिबंध धीरे-धीरे हटा लिए जाएंगे. इससे फ़ायदे होंगे, पर इन्हें आंकड़ों में बांधना थोड़ा मुश्किल है.
सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि ईरान से भारत कोई भी काम करता था, तो दूसरे दिन ही अमरीका और पश्चिमी देशों से चिट्ठी आ जाती थी कि प्रतिबंध के बावजूद आपने ऐसा क्यों किया. वो सब खत्म हो गया.
ईरान को लेकर एक धारणा बनी हुई थी जिससे तेल की कीमतें बढ़ रही थीं. ईरान-इराक़ के कारण पूरी दुनिया तेल की कीमतों में सात से 10 डॉलर प्रति बैरल अधिक का भुगतान कर रही थी. धीरे-धीरे वह ख़त्म हो जाएगा.
कच्चे तेल की कीमत में थोड़ी नरमी आएगी. इस तरह हम देखें, तो भारत को धारणा के हिसाब से फ़ायदा हुआ है. भारत उनसे दोबारा बातचीत शुरू कर सकता है.
यहां मैं एक चीज़ कहना चाहूंगा कि भारत ने प्रतिबंधों को लेकर ईरान के खिलाफ कड़ा रुख़ अख़्तियार किया हुआ था. वह कुछ हद तक ग़लती थी. बीच का रास्ता अपनाना चाहिए था. नतीजा यह हुआ है कि ईरान पर प्रतिबंध हटने और उसका तेल व्यापार खुलने के बाद जो लाभ भारत की कंपनियों को मिलना चाहिए था, वह अब पश्चिम की कंपनियों को मिलेगा.
संबंधों पर पड़ी बर्फ़
जब तक भारत ने रुख़ कड़ा नहीं किया, तब तक पर्दे के पीछे ईरान से संबंध ठीक थे. लेकिन भारत ने इन संबंधों पर बर्फ़ डाल दी थी. कूटनीति में सफेद और काले की दृष्टि से देखने की ग़लती भारत कर चुका है.
भारत सरकार ने तो अपनी तेल कंपनियों पर इस बात के लिए ज़ोर डाला कि वो वहां पर अपना काम बंद करें. यह तो कंपनियों की समझदारी थी कि उन्होंने अपने प्रोजेक्ट बंद नहीं किए. उनको सक्रिय रखा, जिससे आज वे वापस जा सकती हैं. लेकिन पश्चिम की कंपनियां खासकर इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी को इससे सबसे बड़ा लाभ मिलने वाला है. चीन को तो लाभ होगा ही.
जहां तक अमरीकी दबाव के बावजूद भारत के ईरान से बेहतर रिश्ते रखने संबंधी अवधारणा है, तो यह ग़लत है. मेरा मानना है कि भारत के ऊपर जो दबाव आया था, उसे उसने कुछ ज़्यादा गंभीरता से लिया. जितने पैर टिकाने चाहिए थे, उससे ज्यादा टिका दिए.
यहां जिन कंपनियां ने ईरान में निवेश कर रखा था, उसे आगे काफ़ी हद तक बंद कर दिया. दूसरी तरफ ईरान की तरफ से जब-जब भारत के साथ बिजनेस के प्रस्ताव आए, उन प्रस्तावों को गंभीरता से नहीं लिया गया. इसके अलावा चीन-जापान के मुकाबले भारत ने काफी तेज़ी से वहां से अपने तेल आयात घटाए.
व्यवहारिक रवैया
मुझे ऐसा लगता है कि जो प्रतिक्रिया थी वो थोड़ी ज़्यादा थी. जो भारतीय कूटनीति थी, उसमें थोड़ा व्यवहारिक रवैया अपनाना चाहिए था. आज उसका फ़ायदा मिलता. हक़ीकत यह है ईरान कहीं न कहीं भारत को लेकर थोड़ा सा नाराज़ है.
वह कहता है कि आपके साथ हमारे दो हज़ार साल पुराने संबंध हैं, पश्चिम का आप पर दबाव था, हम भी समझते हैं, लेकिन आपने ओवर-रिएक्ट किया. यह बात ईरान भारत से औपचारिक रूप से भी कह चुका है.
भारत के साथ यह समस्या है कि वह चीज़ों को काले-सफेद में देखते हैं. जबकि कूटनीति का कोई रंग नहीं होता. आपका राष्ट्रहित क्या है, वह परम होता है. इस मसले पर चीन और फ्रांस की नीति बेहतर रही.
जहां तक ईरान-पाकिस्तान-भारत परियोजना की बात है, तो इसमें शामिल होने के लिए ईरान और पाकिस्तान ने जोर डाला, लेकिन भारत उसमें शामिल नहीं हुआ.
ईरान-पाकिस्तान अब उस पर आगे बढ़ चुके हैं. उन्होंने उसके नक़्शे वगैरह पास कर लिए हैं. काम शुरू होने वाला है.
वित्तीय मसलों और कितनी गैस पाकिस्तान आएगी, इस पर बातचीत चल रही है. भारत को अब कहना पड़ेगा कि वह इसमें शामिल होना चाहता है क्योंकि पश्चिमी देशों ने आपसे प्रतिबंध हटा लिए हैं. हालांकि यह आसान नहीं रहेगा. भारत को इसमें थोड़ी शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी.
वैसे पाकिस्तान जानता है, जब तक भारत इससे नहीं जुड़ता तब तक गैस सस्ती नहीं पड़ेगी. वहीं ईरान को भी पता है भारत के बिना यह परियोजना टिकाऊ नहीं होगी. भारत का जुड़ना सबके हित में है. लेकिन भारत ने जैसा किया है, उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी.
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