‘वो मर गई लेकिन हम रोज़ मरते हैं’

अभी भी जो चीज़ें ख़राब हो रही हैं कम से कम हमारी न्याय व्यवस्था, हमारी सरकार उस पर विश्वास करती। ये होता कि चलो हमारी बच्ची तो हमें नहीं मिली, लेकिन और बच्चियों के लिए कुछ हो गया। लेकिन ऐसा भी नहीं है। संतोष करने वाली ऐसी कोई चीज़ ही नहीं दिखती जिसे देखकर आदमी संतोष करे। मैं ये मानकर नहीं बैठ सकती कि एक घटना थी, जो होना था हो गया। मैं जानना चाहती हूं कि अगर ऐसा हुआ तो हमने उससे क्या सीखा।  जितनी तकलीफ़ हमको है, उतनी ही तकलीफ़ उन मां-बाप को भी होती होगी जिनकी बच्चियां मर रही हैं।  कहने के लिए अदालतें हैं, सरकार है, किसलिए हैं? हमें उन रिपोर्टों पर विश्वास नहीं होता कि उसे एनजीओ को सौंपा जाएगा।

 ‘वो मर गई लेकिन हम रोज़ मरते हैं’

चाहे कुछ भी हो, हमारे लिए तो वो आज़ाद है।  जेल से छूट गया, वो आज़ाद है। चाहे उसे एनजीओ भेजा जाए, चाहे उसे घर पर रखा जाए, ये मेरे लिए मायने नहीं रखता। मेरे लिए मायने ये रखता है कि हमारी बच्ची का एक दोषी छूट गया।  लेकिन इतना ज़रूर कहूंगी कि इतना बड़ा अपराध होने के बाद हमारी न्यायपालिका, हमारी सरकार उसे अगर छोड़ रही है तो हम उन उम्र के बच्चों को अपराध की तरफ़ इशारा कर रहे हैं कि आप कुछ भी कर सकते हो 18 साल से पहले, आपके लिए कोई सज़ा नहीं है। ये समाज के लिए ग़लत संदेश जा रहा है।  और वो छूटेगा तो वो समाज के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है।

‘वो मर गई लेकिन हम रोज़ मरते हैं’

पब्लिक की सुरक्षा भी सरकार की ज़िम्मेदारी है।  सरकार को पब्लिक के बारे में और मेरे जैसे पीड़ित के बारे में सोचना चाहिए कि हम पर क्या गुज़रती है।  बाक़ी मैं अब क्या कहूं? वर्मा समिति बनने के बाद जो कुछ हुआ वो सबकुछ काग़ज़ों में है।  उसका भी सही मायनों में इस्तेमाल नहीं हो रहा है। अगर आज उसका सही मायने में इस्तेमाल हुआ होता, चाहे समाज की सुरक्षा की किसी को परवाह होती तो उन मुजरिमों को सज़ा मिली होती। ये जुवेनाइल छूटता लेकिन और (दूसरे) जुवनाइल के लिए क़ानून बन गया होता।

‘वो मर गई लेकिन हम रोज़ मरते हैं’

उस वक़्त हमें ये कहकर चुप कराया गया कि दुर्भाग्यवश एक घटना हो गई तो उसके लिए क़ानून नहीं बदलेगा लेकिन मैं उन लोगों से आज ये पूछना चाहती हूं कि दुर्भाग्यवश रोज़ ये घटनाएं हो रही हैं।  अब आप क्या कर रहे हैं? अभी जो कुएं में एक लड़की को डालने की घटना हुई, उसमें दो जुवेनाइल (का नाम आया) हैं।  कुछ वक़्त पहले ढाई साल की एक बच्ची के साथ घटी घटना में दो जुवेनाइल के शामिल होने की बात सामने आई है।

‘वो मर गई लेकिन हम रोज़ मरते हैं’

उन बच्चियों की तो ज़िंदगी ख़राब हो गई।  जुवनाइल ये घटनाएं करके छूट जाएंगे। अगर इस क़ानून को बदल दिया गया होता तो कम से कम इन्हें सज़ा मिलती।  फिर ये काम करते ही नहीं।  कम से कम डर तो रहता कि अगर हम ऐसा करेंगे तो हमें भी सज़ा मिलेगी।  लेकिन ऐसा है नहीं। क़ानून का कोई डर, ख़ौफ़ नहीं है।  इनका तो अधिकार है कि हम 18 साल से पहले कुछ भी कर सकते हैं।

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(बीबीसी संवाददाता विनीत खरे के साथ बातचीत पर आधारित)

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