ये इतना दूर और इतना दुर्गम इलाक़ा है कि यहां तक पहुंचना बेहद मुश्किल है। ये है इर्कुटस्क शहर।
क़िस्सा रूस में कम्युनिस्ट क्रांति के दौर का है। पहले विश्व युद्ध के बाद रूस में बोल्शेविक क्रांति हो गई थी। लेनिन और उनके कमांडर लियोन ट्रॉटस्की ने रूस के बादशाह ज़ार निकोलस द्वितीय की सेनाओ को कई जगह शिकस्त दे दी थी।
लेनिन के कमांडर
ख़ास तौर से रूस के पश्चिमी इलाक़ों में एक बड़े हिस्से पर वामपंथी क्रांतिकारियों का क़ब्ज़ा हो गया था। इसी दौर में ज़ार निकोलस द्वितीय के सलाहकारों ने उन्हें सलाह दी कि वो अपने ख़ज़ाने को राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग से पूर्वी इलाक़े में कहीं भेज दें, वरना वो क्रांतिकारियों के हाथ लग जाएंगे।
उस वक़्त अमरीका और फ्रांस के बाद रूस के पास ही सोने का तीसरा बड़ा ज़ख़ीरा था। ज़ार निकोलस की समर्थक व्हाइट फोर्सेज ने क़रीब पांच सौ टन सोना एक ट्रेन में लादकर सेंट पीटर्सबर्ग से पूर्वी शहर कज़ान की तरफ़ रवाना कर दिया। इस बात की ख़बर लेनिन के कमांडर लियोन ट्रॉटस्की को लग गई।
कजान शहर
ये ख़ज़ाना जिसके भी हाथ में होता, उसके लिए जीत की राह हमवार हो जानी थी। इसीलिए ट्रॉटस्की कज़ान जा पहुंचा। वहां पर ट्रॉटस्की की सेना ने ज़ार समर्थक व्हाइट फ़ोर्सेज को शिकस्त दे दी। मगर जब वो कज़ान शहर के अंदर दाखिल हुए तो पता चला कि सोना तो वहां नहीं था। उसे और पूरब की तरफ़ रवाना कर दिया गया था।
ट्रॉटस्की ने दूसरी ट्रेन से सोने से लदी गाड़ी का पीछा करना शुरू कर दिया था। उस वक़्त रूस ने इतनी तरक़्क़ी नहीं की थी। ट्रेन हो या रेलवे लाइन सब बेहद बुनियादी स्तर के थे। ऐसे में ये लुकाछिपी कई महीनों तक जारी रही। साइबेरियाई इलाक़े में सोने से लदी ट्रेन को ज़ार के नए कमांडर अलेक्ज़ेंडर कोलचाक ने अपने क़ब्ज़े मे ले लिया।
खजाने वाली ट्रेन
उसने ट्रेन के और आगे रवाना कर दिया। अब इस ट्रेन की मंज़िल साइबेरिया का इर्कुटस्क शहर थी। ये एक कारोबारी ठिकाना था जो बैकाल झील के पास स्थित था। आज भी इर्कुटस्क ने कुछ ज़्यादा तरक़्क़ी नहीं की है। रात में यहां घुप्प अंधेरा होता है। बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाओ तक की यहां कमी है।
हां, तो हम ख़ज़ाने वाली ट्रेन की बात कर रहे थे। ख़ज़ाने वाली ट्रेन जब इर्कुटस्क शहर पहुंची तो उसे वहां मौजूद चेक सैनिकों ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया। ये चेक फौजी, पहले विश्व युद्ध में रूस की तरफ़ से लड़ने के लिए आए थे। जंग के दौरान ही रूस में क्रांति हो गई। जिस वजह से ये सैनिक वहीं फंस गए थे। इन सैनिकों को घर जाने की जल्दी थी।
कम्युनिस्ट क्रांतिकारी
सो, उन्होंने सोने से लदी ट्रेन को कोलचाक के क़ब्ज़े से छीन लिया। कहा जाता है कि उन्होंने ये ट्रेन बोल्शेविक लड़ाकों यानी कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को सौंप दी। उन्होंने कोलचाक को भी ट्रॉटस्की के सैनिकों के हवाले कर दिया। इसके बदले में चेक सैनिकों ने ट्रॉटस्की से अपने वतन वापस जाने की इजाज़त मांगी, जो उन्हें मिल गई।
वो रूस के पूर्वी बंदरगाह व्लादिवोस्टोक से समंदर के रास्ते अपने देश रवाना हो गए। कुछ क़िताबें कहती हैं कि ट्रॉटस्की ज़ार के पूरे ख़ज़ाने को मॉस्को ले आया। उसने ज़ार के कमांडर कोलचाक को गोली मार दी थी। लेकिन, कुछ लोग मानते हैं कि इस दौरान क़रीब दो सौ टन सोना पार कर दिया गया। यानी उसका आज तक पता नहीं चला।
रूस के आर-पार
इस घटना को सौ साल बीत चुके हैं। क़रीब एक सदी से ख़ज़ाने को लेकर तरह तरह की अटकलें लगाई जाती रही हैं। आज भी रूस के इस इलाक़े तक पहुंचने के लिए आपको ट्रांस साइबेरियन रेलवे का सफ़र करना होगा। ये ट्रेन हजारों किलोमीटर तय करके कमोबेश पूरे रूस के आर-पार होते हुए, पूर्वी समुद्री तट तक पहुंचाती है।
इतने लंबे सफ़र के बावजूद ट्रेन में एसी और ढंग के बाथरूम जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। बीबीसी संवाददाता लिना ज़ेल्डोविच, रूस की ही रहने वाली हैं। उनका परिवार क़रीब तीस साल पहले रूस से अमरीका के न्यूयॉर्क में जाकर बस गया था। उनका परिवार कज़ान इलाक़े के पास ही रहता था।
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ट्रांस साइबेरियन रेलवे
इसीलिए बचपन से ही लिना कोलचाक के ख़ज़ाने के लापता होने का क़िस्सा सुनती आई हैं। उन्होंने ट्रांस साइबेरियन रेलवे से लंबा सफ़र तय करके पूर्वी इलाक़े में स्थित रूस के शहर इर्कुटस्क पहुंचने का फ़ैसला किया। ताकि वो इस ख़ज़ाने के राज़ को समझ सकें। ट्रेन में उन्होंने कई लोगों को इस बारे में बात करते सुना।
सब का मानना था कि ख़ज़ाने के एक हिस्से का कोई पता नहीं। तब लिना ने बातचीत में दखल देते हुए कहा कि मशहूर रूसी इतिहासकार सर्जेई वोल्कोव ने तो अपनी क़िताब में लिखा है कि ट्रॉटस्की ने कोलचाक से पूरा सोना बरामद कर लिया था। लेकिन किसी ने भी लिना ज़ेल्डोविच की बात का यक़ीन नहीं किया।
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कुदरती खूबसूरती
सब ने उन पर तंज किया कि अक्सर लोग क़िताब में लिखी बातों को ही सच मान लेते हैं। मगर वो सच हो ये ज़रूरी नहीं। कज़ान और साइबेरिया के तमाम इलाक़े आज भी बेहद पिछड़े हुए मालूम होते हैं। भयंकर रूप से सर्द और बर्फ़ीला ये इलाक़ा क़ुदरती ख़ूबसूरती से तो लबरेज़ है, मगर तकनीक की तरक़्क़ी की रफ़्तार बेहद सुस्त।
फिर चाहे यहां चलने वाली रेलगाड़ी हो या शहर की स्ट्रीट लाइट। नहीं बदले हैं तो पिछले सौ सालों से चले आ रहे कोलचाक के ख़ज़ाने के क़िस्से। लिना ने बहुत से स्थानीय लोगों से बात की। किसी ने कहा कि उसे कहीं छुपा दिया गया, तो किसी ने कहा कि ख़ज़ाने का बड़ा हिस्सा स्थानीय लोगों ने लूट लिया था।
कोयले वाले इंजन
कुछ लोग कहते हैं कि ख़ज़ाने से लदी एक ट्रेन बैकाल झील में डूब गई थी। जिसे कभी निकाला नहीं जा सका। इसका अंदाज़ा लगाने के लिए लिना ने एक बहुत पुरानी कोयले वाले इंजन से चलने वाली ट्रेन से बैकाल झील के पास सफ़र किया।
ये ट्रेन जैसे हिचकोले खाते हुए चलती है, उससे तो वाक़ई यही लगा कि अगर ख़ज़ाने से लदी ट्रेन उस वक़्त लुढ़की होगी तो सीधे झील में ही जा गिरी होगी। उस वक़्त की रेलगाड़ियां तो और भी ज़्यादा हिचकोले खाते चलती थीं। इस ट्रेन के ड्राइवरों से बातचीत में भी लिना को ख़ज़ाने से जुड़े नए क़िस्से सुनने को मिले।
पांच सौ टन सोना
इन ड्राइवरों का मानना था कि चेक लड़ाकों ने पूरा पांच सौ टन सोना ट्रॉटस्की के हवाले नहीं किया था। वो 200 टन सोना अपने साथ पानी के जहाज़ से अपने देश ले जाने के लिए दूसरी ट्रेन में लाद कर चले थे। मगर ये ट्रेन भी अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंची।
इसी ट्रेन के बैकाल झील में गिर जाने के क़िस्से कुछ स्थानीय लोगों की ज़ुबान पर आज तक हैं। बैकाल झील के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने वाली ट्रेन आज भी इर्कुटस्क में चलती है। इसमें कोयले से चलने वाले इंजन लगे होते हैं। इस गाड़ी में सिर्फ़ दो डिब्बे लगे होते हैं।
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झील की गहराई
इस रेलगाड़ी में सफ़र करके आपको ऐसा लगेगा जैसे आप बीसवीं सदी की शुरुआती दौर में पहुंच गए हों। इस ट्रेन के रास्ते में पड़ने वाले गांवों में लोग बैकाल झील में मिलने वाली ओमुल मछली और ब्रेड बेचते अक्सर मिल जाते हैं। रास्ते में कई लोग बैकाल के बर्फ़ीले पानी में डुबकी लगाते भी दिखेंगे।
2009 में बैकाल झील में गोताखोरों ने डुबकी लगाकर डूबी हुई ट्रेन तलाशने की कोशिश की थी, उन्हें ट्रेन के डिब्बे और कुछ चमकती हुई चीज़ें मिली थीं। मगर वो उसे निकालकर बाहर नहीं ला सके। क्योंकि वो चमकती हुई चीज़ झील की गहराई में दरारों में फंसी थी, जहां तक हाथ पहुंचना भी मुश्किल था।
जार का कमांडर
स्थानीय लोग कहते हैं कि बैकाल झील जो चीज़ एक बार अपने में समेट लेती है, तो वो दोबारा नहीं देती। शायद इसीलिए स्थानीय लोगों को इस क़िस्से से तसल्ली मिलती है कि सोने से लदी ट्रेन झील में समा गई थी। पिछले सौ सालों में इर्कुटस्क बदला भी है और नहीं भी। कभी ज़ार का कमांडर रहा कोलचाक रूस का विलेन था।
कम्युनिस्टों ने उसे गोली मार दी थी। मगर आज कोलचाक की एक विशाल मूर्ति इर्कुटस्क में लगा दी गई है। उस पर लगी कांसे की पट्टी उसे महान वीर बताती है, जिसने देश की ख़ातिर जान दे दी। वाक़ई इतिहास विजेता का होता है। मगर कुछ वक़्त कुछ ऐसी इबारतें लिख जाता है, जिसे मिटाना शासकों के बस की बात नहीं होती।
इर्कुटस्क में खजाने को लेकर सुने-सुनाए जाने वाले क़िस्से, तारीख़ की ऐसी ही इबारत है।
International News inextlive from World News Desk
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